डा. जितेंद्र व्यास, नईदुनिया इंदौर : कनवाड़ा...करीब एक हजार की आबादी वाले इस छोटे से गांव को प्रथमदृष्टया देखकर यही आभास होता है कि पिछड़ेपन से उबरकर विकास की ओर यात्रा करने में यहां के लोगों को अभी समय लगेगा। वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान बाग से जोबट जाते समय इस गांव में कुछ देर रुके थे। इस बार लोकसभा चुनाव के दौरान फिर यहां रुककर हालात का जायजा लेने पहुंचे।
गांव की सूरत में तो मामूली बदलाव ही नजर आया। कच्चे खपरैल के बजाए कहीं-कहीं मकानों पर टिन की छत नजर आई तो कुछ घरों के बाहर मोटरसाइकिलें भी दिखीं, लेकिन सबसे बड़ा बदलाव गांव में प्रवेश करते ही बातचीत के दौरान युवाओं के साथ-साथ ग्रामीण महिलाओं की अपने पिछड़ेपन को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की छटपटाहट के रूप में दिखा।
शिक्षा की कसौटी पर भले ही ये ग्रामीण खरे न उतरें, लेकिन जिंदगी की कसौटी पर बदलाव को ये बड़ी तेजी से अंगीकार करते नजर आए। गांव के चौक पर मौजूद युवाओं के बीच स्थानीय बोली में चल रही बातचीत में भी डीपी, पोस्ट, स्टेटस और वायरल जैसे शब्द उतने ही सहज हो चले हैं, जितने बड़े कस्बे या शहरों के लोगों के बीच हैं।
मप्र के दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से में विंध्य और सतपुड़ा की वादियों के बीच स्थित आलीराजपुर जिला यूं तो नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश का सबसे गरीब जिला है, मगर यहां के लोगों में समय की धारा का बदलाव अब साफ दिखता है। वर्षों तक यहां के जिन बाशिंदो ने सिर्फ चिह्न को पहचान कर मतदान किया, अब उनकी नई पीढ़ी न सिर्फ मुखर हो रही है बल्कि अपनी समझ और जिज्ञासाओं के साथ सवाल भी करती है। इसी जिले का गांव है कनवाड़ा।
यहां के राकेश डुडवे कहते हैं- हमारे लिए बनी योजनाओं से कैसे बदलाव आता है, यह कुछ समय पहले तक लोग समझते नहीं थे। हमारे गांवों के लड़के कस्बों और शहरों में जाकर मजदूरी करते थे। अब समूह बनाकर सब्जी उत्पादित कर मजदूरी से कहीं अच्छी कमाई करते हैं। देश के सबसे कम शिक्षित जिले के लोग कुछ समय पहले तक सरकारी दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ने का साहस नहीं जुटा पाते थे, लेकिन बदलाव की बयार ने न सिर्फ इनकी हिचक तोड़ दी बल्कि सरकारी तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए मैदान में उतरने का साहस भी भर दिया।
जोबट में अपने लोडिंग वाहन पर देशी फल लेकर बिक्री के लिए खड़े वेलसिंह डामोर बताते हैं कि हमारे पहाड़ी गांवों से कस्बे तक आना आसान नहीं होता था। मोटरसाइकिल ही मुश्किल से पहुंचती थी। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले गांव के लोगों ने जोबट-आलीराजपुर पहुंचकर सड़क के लिए प्रदर्शन किया। इससे हमारे गांव की सड़क बन गई। अब गांव से आसानी से फल और सब्जियां लेकर आलीराजपुर चले जाते हैं। गांव के अन्य लोगों को भी अपनी उपज बेचने के लिए अब परेशान नहीं होना पड़ता।
आलीराजपुर के व्यवसायी दिलीप गुप्ता कहते हैं कि पांच सालों में क्षेत्र की आर्थिकी में बहुत बदलाव नजर आता है। लोगों के हाथ में स्मार्टफोन ने उन्हें दुनिया से जोड़ दिया है। छोटे-छोटे गांव में सीधी कनेक्टिविटी ने रोजगार के नए-नए साधन गांवों तक पहुंचा दिए हैं। कपड़ा और किराना दुकानों से सामान लेने पहाड़ी गांवों के लोग हफ्ते में दो बार पहुंचते हैं और थोक में सामग्री लेकर जाते हैं। मुनाफा लेकर उन्हें अपने टोले, मजरों (50-100 घरों वाले छोटे गांव) में बेच देते हैं।
सड़कें अच्छी होने की वजह से सरकारी योजनाओं का लाभ उठाकर क्षेत्र के आदिवासी युवाओं ने बैंक से लोन लेकर वाहन खरीद लिए। ये वाहन उन रास्तों पर सवारियों के आवागमन में उपयोग हो रहे हैं, जहां बसें नहीं पहुंचती हैं। प्रदेश की सीमा से गुजरात की सीमा के गांवों के बीच चलने वाली ये वैन न सिर्फ जगह-जगह नजर आती हैं बल्कि दर्जनों युवाओं को रोजगार का नया माध्यम भी उपलब्ध करवाती हैं।
सड़क किनारे देशी आम की टोकरी लेकर बैठी जितिया से लोकसभा चुनाव के बारे में पूछने पर पहले थोड़ा हिचकती है... कुछ देर रुककर कहती है कि उसे मालूम है चुनाव होने वाले हैं। वोटर आइडी बनवाया है, पूछने पर तुरंत स्मार्ट फोन निकालकर उसमें वोटर आइडी का फोटो भी बता देती है। स्कूल गई हो, पूछने पर इन्कार में गर्दन हिलाती है। फिर फोन कैसे चलाती हो, पूछने पर कहती है भाई ने सिखा दिया। फोन से क्या करती हो, पूछने पर आदिवासी लोक संगीत के वीडियो सुनने की बात जितिया ने कही।
इसी दौरान पहुंचे एक ग्राहक ने आम को लेकर मोल-भाव करना शुरू किया तो जितिया ने भाव करने से इन्कार कर दिया। उसने पांच किलो खरीदी का लालच दिया, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई। भाव कम कर देती, वो ज्यादा आम ले रहे थे, यह पूछने पर बोली- क्यों कम कर दें। दूर से मेहनत करके लाते हैं। अभी शहर जाएंगे तो इससे दोगुनी कीमत में खरीदेंगे। उसका आत्मविश्वास देखकर यह यकीन भी हुआ कि बदलाव इस क्षेत्र की हवाओं में बहने लगा है। यह सिर्फ पहनावे तक सीमित नहीं है बल्कि विचार और व्यवहार में भी नजर आने लगा है।