World Television Day राघव तिवारी, इंदौर। क्या यार, आजकल टीवी कौन देखता है!...ये लाइन आजकल आपको ज्यादातर युवाओं से सुनने को मिल जाएगी। लेकिन एक दशक पहले तक टेलीविजन एक लक्जरी लाइफस्टाइल का हिस्सा हुआ करती थी। वर्ष 2000 से 2010 के बीच ज्यादातर घरों में टीवी होती थी और इसमें सीरियल, रामायण, समाचार, मैच, फिल्म आदि देखने के लिए पूरा परिवार एक साथ बैठता था। कार्यक्रम आने से पहले ही सभी आयु वर्ग के लोग अपने काम निपटा लेते थे। अब हर हाथ में स्मार्टफोन आने से लोग अपने-अपने कमरों में कैद हो गए।
इंदौर में करीब 80 के दशक में टेलीविजन की शुरुआत हो गई थी। वर्ष 1980 से 1995 के दौर में तो गांव, मोहल्ले में एक या दो ही टेलीविजन हुआ करते थे। उस दौर में तो टेलीविजन के प्रति लोगों की दीवानगी देखते बनती थी। बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि कोई अच्छी फिल्म आती तो टीवी खुले में लगा दी जाती और दरी बिछाकर पूरा गांव एक साथ टीवी देखता। रामायण धारावाहिक का दौर तो अब इतिहास है। पहले केवल दूरदर्शन ही चलता था, जिस पर अलग-अलग समय में समाचार, मुशायरा, सीरियल आदि चीजें आती थीं।
अब हर हाथ स्मार्टफोन आने से टेलीविजन का दौर खत्म-सा हो गया। अब लोग सीरियल, खेल, समाचार आदि देखने के लिए तय समय का इंतजार नहीं करते। सभी कार्यक्रम रिकार्ड होने की वजह से लोग अपनी सुविधा अनुसार समय मिलने पर देख लेते हैं। इस कारण टीवी देखने का सामूहिक आनंद अब खत्म हो गया है।
टीवी के आकार-प्रकार में भी काफी बदलाव हुए हैं। कभी भारी-भरकम टेलीविजन के बदले अब स्मार्ट टीवी आ रही हैं। स्मार्ट टेलीविजन में मल्टीफीचर्स और हाई रेजोल्यूशन की सुविधाएं हैं। यदि किसी को पसंदीदा सीरियल बाद में देखना हो, तो भी पेनड्राइव के जरिए रिकार्ड भी जा सकता है। हालांकि इसके बावजूद सेटेलाइट चैनल व ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म की सुविधाएं मोबाइल में मिलने के कारण टीवी काल-बाह्य होते जा रहे हैं।
वर्ष 1996 में आयोजित की गई पहली विश्व टेलीविजन फोरम की याद में हर साल 21 नवंबर को विश्व टेलीविजन दिवस मनाया जाता है। बाद में संयुक्त राष्ट्र ने लोगों के निर्णय की क्षमता पर आडियो-विजुअल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और अन्य प्रमुख मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने में इसकी संभावित भूमिका को पहचानने के लिए एक प्रस्ताव अपनाया।
टीवी का आविष्कार स्काटलैंड के इंजीनियर जान लोगी बेयर्ड ने वर्ष 1924 में किया था। इसके बाद साल 1927 में फिलो फार्न्सवर्थ ने दुनिया के पहले वर्किंग टेलीविजन का निर्माण किया, जिसे 01 सितंबर 1928 को प्रेस के सामने पेश किया गया था। कलर टेलीविजन का आविष्कार भी जान लोगी बेयर्ड ने साल 1928 में किया था।
साहित्यकार डा. पद्मा सिंह ने बताया कि उन्होंने सबसे पहली बार 70 के दशक में दिल्ली में टीवी को देखा था। पहली बार टीवी देखकर मैं आश्चर्य थी कि एक डिब्बे में पूरी दुनिया कैसे दिख सकती है। मुझे साल तो ठीक से याद नहीं, लेकिन 80 का दशक था, जब मैं रेलवे स्टेशन के पास एक परिचित के यहां टीवी देखने जाती थी। कुछ साल बाद हमारे घर भी टीवी आ गई। उस समय करीब ढाई हजार रुपये में टीवी आई थी। जब घर में टीवी चलती थी, तो पूरे मोहल्ले के बच्चे और बड़ों की भीड़ लगती थी। हम लोग सीरियल उस समय काफी प्रसिद्ध था।
एक किस्सा याद करते हुए पद्मा सिंह ने बताया कि एक बार हम लोग मांडू घूमने गए थे, वहां टीवी खुले में रखी थी और उस पर रामायण सीरियल चल रहा था। उसे आसपास के गांवों के कई लोग साथ बैठकर देख रहे थे। यह दृश्य टीवी के सामाजिक प्रभाव का शानदार उदारहण है।
साहित्यकार आलोक शर्मा एक रोचक किस्सा बताते हैं। वर्ष 1983 की बात है, जब मैं अपने मित्र सूर्यकांत के साथ खुद का काम शुरू करना चाहता था। तब टेलीविजन का चलन हो गया था। हम लोग दिल्ली में बेटरन टीवी की डीलरशिप लेने गए। लौटते समय हम चंबल के इलाके से गुजर रहे थे और काफी रात हो गई थी। तभी हमें डकैतों ने घेर लिया। मेरी और सूर्यकांत की जान हलक में आ गई।
उस समय डकैतों का काफी कहर हुआ करता था। लेकिन डकैतों ने जब हमारे पास टीवी रखी देखी तो बोले-अरे, इन्हें जाने दो, ये तो मनोरंजन वाले हैं। उनका यह व्यवहार टेलीविजन के प्रति दीवानगी को दिखाता है। आलोक बताते हैं कि उस दौर में जब टीवी चलता था, तो कर्फ्यू जैसा माहौल रहता था। लोग धार्मिक कार्यक्रमों को ज्यादा पसंद करते थे।
शहर के वरिष्ठ नागरिक इसरदास सबनानी ने बताया कि शुरुआती दौर में टीवी के प्रति दीवानगी देखते बनती थी। मैं तब जावरा (जिला रतलाम) में रहता था, पूरे गांव में मात्र तीन टेलीविजन थे। एक टीवी पर करीब 150 लोग कार्यक्रम देखते थे। आलम यह होता मानो हर दिन त्योहार हो या घर में कोई कार्यक्रम हो। अगर टीवी खराब हो जाता, तो तुरंत सही नहीं हो पाता था। शहर से मैकेनिक बुलाना पड़ता था। उतने दिन या समय तक पूरा गांव बेचैन रहता। टीवी सही कराने के लिए हर आदमी मदद करने का प्रयास करता था। उस समय ज्यादा सीरियल नहीं आते थे, लेकिन जो भी आता, उसे गांव के सब लोग साथ बैठकर देखते।
मैंने 1987 में दूरदर्शन में अपना करियर शुरू किया था। तब दूरदर्शन का एकछत्र राज था। हमें तब टीआरपी की चिंता नहीं थी। अंतिम निर्णय हमारे हाथ में होता था कि लोगों को किस तरह का कंटेंट दिखाया जाए। हमारा उद्देश्य रहता था कि मानवीय मूल्य, शिक्षा व चेतना जगाने वाले धार्मिक तथा व्यावहारिक कार्यक्रम दिखाए जाएं। अगर हम रामानंद सागर, मनोहर श्याम जोशी जैसे लेखकों के कंटेंट चलाते थे। इन्हीं मूल्यों के चलते मध्यमवर्गीय लोगों से जुड़ा हम लोग भारत के हर गांव-शहर में प्रसिद्ध हुआ था। अब टेलीविजन की स्थिति काफी दयनीय है। अब टीवी पर दिखाई जाने वाली सामग्री का नैतिक और मानवीय मूल्यों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। -विनोद नागर, सेवानिवृत संयुक्त निदेशक, दूरदर्शन