
जबलपुर, नईदुनिया प्रतिनिधि। भारत की भूमि सदियों से धर्म, दर्शन और चिंतन की जननी रही है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए 20वीं सदी में एक ऐसे विचारक का जन्म हुआ, जिसने भारतीय अध्यात्म को नई दिशा दी। पूरी दुनिया को जीवन, प्रेम और ध्यान का नया केंद्रबिंदु सौंपा। यह व्यक्तित्व थे आचार्य रजनीश... जिन्हें दुनिया ओशो के नाम से जानती है।
उनका जीवन जितना रहस्यमय के साथ-साथ प्रभावशाली भी था। इस पूरे जीवन में जबलपुर वह धरा रही, जहां उन्होंने सबसे लंबा समय बिताया। जहां उन्हें मौलश्री वृक्ष तले संबोधि मिली, जहां उनका विचार-बीज अंकुरित हुआ और फिर विश्वभर में फैल गया।

सुप्रसिद्ध विद्वान टीएस इलियट ने भारतीय दार्शनिकों के बारे में कहा था कि उनके विचार इतने गहन और सूक्ष्म हैं कि उनके सामने अधिकतर महान यूरोपीय दार्शनिक स्कूली बच्चों की तरह लगते हैं। इस बात को आचार्य रजनीश ने प्रमाणित किया। इसलिए ईसाई मिशनरियों के दवाब में अमेरिका की सरकार उनके पीछे पड़ गई, जिसमें यूरोपीय देशों की मिशनरियों सहित तत्कालीन पोप भी सम्मलित थे। फिर इतिहास की पुनरावृति हुई। उधर, एथेंस वासी सुकरात को मारने के लिए हीमलकाक जहर देते हैं। अमेरिका के लोग ओशो को स्लोपाइजन थेलियम देते हैं, लेकिन ये दोनों तत्कालीन समुदाय यह नहीं जानते थे कि दोनों अमर हैं।
नर्मदा के पवित्र जल और संस्कारधानी की पवित्र मिट्टी से धर्म, अध्यात्म, दर्शन सहित विविध विधाओं के दुर्लभ रंग-बिरंगे खूबसूरत और सुगंधित अमर पुष्प विकसित हुए हैं। कभी महर्षि गौतम के रूप में, कभी जाबालि ऋषि के रुप में, तो कभी भृगु मुनि के रूप में, कभी महर्षि महेश योगी के रूप में, तो कभी आचार्य रजनीश के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें ओशो पारिजात यानि हरसिंगार पुष्प हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि संसार के रंगमंच पर समय समय पर महान आत्माएं अवतरित होती हैं, जो अपनी दिव्य छवि का प्रकाश बिखेर कर अपने चरण चिन्ह, आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाती हैं, जिससे भविष्य में भी उनका मार्गदर्शन होता रहे। ऐंसी युगांतकारी आत्माओं में आचार्य रजनीश का नाम सदैव अमर रहेगा। वे अपने छह दशक के कुल जीवनकाल में सर्वाधिक दो दशक जबलपुर निवासी रहे, यह इस शहर के लिए गौरव का बिंदु है।

जबलपुर निवासी इतिहासकार डा. आनंद सिंह राणा ने बताया कि आचार्य रजनीश यानि ओशो का जन्म 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा ग्राम में नाना पन्नालाल न नानी गेंदाबाई के घर पर हुआ था। उनके पिता बाबूलाल समैया व माता सरस्वती समैया की गृह नगर गाडरवारा, नरसिंहपुर में एक छोटी सी कपड़े की दुकान थी, जिसकी आय से पूरे परिवार का भरण पोषण होता था। वे अपने दस भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई थी। हाई स्कूल शिक्षा के लिए वह अपने काका पत्रकार अमृतलाल चंचल के अनुरोध पर गाडरवारा आ गए। पाठशाला में उनका नाम रजनीशचंद्र जैन था जिसे उन्होंने रजनीश चंद्रमोहन कर लिया था।
हाई स्कूल की शिक्षा पूरी कर वे जबलपुर आ गए और सिटी कालेज में बीए में प्रवेश लिया। वे दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक एसएनएल श्रीवास्तव से कक्षा में इतने प्रश्न पूछते थे कि उन्हें अपना विषय पढ़ाने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। अंततः उन्होंने प्राचार्य से इस विद्यार्थी की अभद्रता की शिकायत की जिस पर उन्हें महाविद्यालय से निकाल दिया गया। यहां के बाद उन्होंने डी. एन. जैन महाविद्यालय में प्रवेश लिया।यहां प्रवेश देते समय प्राचार्य भगवत शरण अधौलिया ने रजनीश जी से वचन लिया था कि वे कक्षा में शांति बनाए रखेंगे और प्रश्नों की बौछार नहीं करेंगे। अमृतलाल चंचल, जो स्वयं पत्रकार थे, रजनीश को नवभारत के संपादक मायाराम सुरजन से मिलाया। अब वे 75 रुपये मासिक वेतन पर नवभारत में काम करने लगे। श्रीजानकीरमण महाविद्यालय के संस्थापक प्राचार्य पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी के साथ मिलकर मुकुल पत्रिका का संपादन भी किया।
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सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र विषय में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की और तुरंत बाद रायपुर के दुधाधारी संस्कृत महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गए। वहां छह माह रहने के बाद जबलपुर आ गए। यहां दर्शनशास्त्र के पारंगत विद्वान प्रो. चंद्रधर शर्मा के सहयोगी के रुप में व्याख्याता पद पर कार्य करने लगे। रजनीश नित्यप्रति जबलपुर में, भंवरताल उद्यान जाते थे और मौलश्री वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठे रहते थे। वहीं चिंतन की दशा में 21 मार्च को उन्हें कुछ ऐसा देवीय प्रकाश मिला जिसने उनके जीवन की धारा बदल दी, वे अब मानव- जीवन की गुत्थियों सुलझाने का प्रयत्न करने लगे, जिन्हें सुलझाने में अन्य दार्शनिक और चिंतक असफल हो चुके थे।
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय अंतर्गत शासकीय महाकोशल कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर में लगभग आठ वर्ष व्याख्याता रहने के बाद उन्होंने यह पद छोड़कर शिक्षा विभाग को ही तिलांजलि दे दी।परन्तु आज भी महाकौशल महाविद्यालय में उनकी स्मृतियाँ सुरक्षित हैं, उनकी आराम कुर्सी ओशो-चेयर सुरक्षित है,जिसे देखने लिए ओशो के शिष्य विदेशों से भी आते हैं।
बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की विचारधारा को लेकर वे मुंबई चले गए यहां उन्होंने विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देना आरंभ किया जिनमें यौन आकर्षण से लेकर सामाजिक दर्शन तक की तर्क पूर्ण विवेचना होती थी। कुछ ही दिनों में उन्हें मुंबई के कृत्रिम जीवन से विरक्ति हो गई। यहां से रजनीश पूना आए जहां 6 एकड़ जमीन खरीद कर उन्होंने एक 'कम्यून' बनवाया यहां प्रतिदिन उनकी प्रवचन सभाएं होतीं, जिनमें हजारों जिज्ञासु शामिल होते थे।
पूना में रजनीश के व्यक्तित्व इतना निखार आया कि देश-विदेश के हजारों लोग आकृष्ट होकर वहां पहुंचने लगे। सन् 1978 में यह स्थिति थी कि संसार के विभिन्न देशों से प्रतिदिन लगभग दो हजार जिज्ञासु आकर उनका प्रवचन सुनते थे। जिसमें पत्रकार भी बहुत संख्या में होते थे जो उनकी चिंतन शैली को अपने देश की पत्र-पत्रिकाओं में समुचित स्थान देकर उसे प्रचारित करते। इससे उनकी कीर्ति द्विगुणित हो गई और ज्ञान की सुगंध देश की सीमाओं को पार कर दूर-दूर तक फैल गई।
1981 में रजनीश अमेरिका के ओरोगन प्रांत चले गए। वहां उनके शिष्यों ने 310 किलोमीटर लंबी दलदल की 400 एकड़ भूमि को अपने अथक परिश्रम से नंदन-कानन में परिवर्तित कर दिया। इस मानव निर्मित स्वर्ग में सभी आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति हो जाती थी। जब अमेरिका में स्थाई रूप से शांति पूर्वक जीवन बिता रहे थे, तभी उन्हें वहां के कट्टर ईसाई धर्मावलंबियों का कोप भाजन बनना पड़ा जो उनके विद्रोही विचारों के प्रमुख आलोचक थे।
रजनीश जीवन को आनंदमय बनाने का जो संदेश देते थे, वह ईसाईयों की स्थापित मान्यताओं के विपरीत था। इन मान्यताओं के विपरीत प्रचार को उनके विरोधी सहन नहीं कर पाए। इन लोगों ने संगठित रूप से पूरे अमेरिका में उनके विरुद्ध भीषण आंदोलन किया जिसमें उन्हें नास्तिक, आनंदजीवी तथा उच्छृंकल ठहरा दिया और अमेरिकन सरकार पर दबाव डाला कि उन्हें जेल में डाल दिया जाए, और आप्रवासी कानून के अंतर्गत उन पर मुकदमा चलाया गया।
अमेरिकी सरकार को चर्च के आंदोलन के आगे झुकना पड़ा और उन्हें बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया गया। कुछ समय बाद बंदी जीवन से मुक्त होते ही उन्होंने दक्षिण अमेरिका और यूरोप के बहुत से देशों में आवास के लिए प्रयास किया परंतु ईसाईयत और पोप के विरोध के कारण असफलता ही हाथ लगी। विवश होकर 29 जनवरी सन् 1986 में भारत लौट आए और अस्वस्थ रहने लगे थे क्योंकि अमेरिका के मार्शल जेल में उन्हें थैलियम नामक दिया गया था। जिससे उनका असमय ही शरीर टूटने लगा और 19 जनवरी सन् 1990 को उनके जीवन का पटाक्षेप हुआ। संस्कारधानी में 21 वर्ष बीते और यहीं मौलश्री वृक्ष के नीचे दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। ओशो के आकार का आकलन करना अत्यंत दुष्कर कार्य है क्योंकि व्यक्तिव बहुआयामी हैं और उसकी सीमायें अनंत, पर इतना सहज और सरल भी है कि जीवन एक बार मिलता है जी भर के जियो आनंद से जियो। बहरहाल, आनंद का दूसरा नाम ओशो है, कहना अतिशयोक्ति न होगी।