सुरेंद्र दुबे, जबलपुर। मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के संस्थापक वकीलों में से एक वरिष्ठ अधिवक्ता जेपी संघी का पुत्र होने के कारण वकालत मुझे (आदित्य संघी) विरासत में मिली। विधि स्नातक होने के साथ ही 1994 में एमपी स्टेट बार कौंसिल में अधिवक्ता के रूप में पंजीकृत हो गया। मेरी वकालत के शुरुआती नौ वर्ष विविध प्रकृति के मुकदमों की पैरवी में गुजरे, लेकिन 2003 में मैंने एक ऐसा केस अपने हाथों में लिया, जिसने मेरी वकालत की दशा और दिशा दोनों को आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया।
इंदौर के स्थान पर जबलपुर में हुई मामले की सुनवाई :
मैंने शाजापुर से जबलपुर आए जीव विज्ञान के छात्र मयंक जैन की ओर से हाई कोर्ट में याचिका दायर की। इस याचिका में पीएमटी एडमिशन रूल-2003 की संवैधानिक वैधता को कठघरे में रखा गया था। चूंकि याचिकाकर्ता हाई कोर्ट की इंदौर खंडपीठ के दायरे में आने वाले शहर का निवासी था, अत: नियमानुसार उसकी याचिका इंदौर खंडपीठ में ही दायर हो सकती थी। किंतु उन दिनों किसी नियम की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली अल्ट्रावायरस चैलेंज संबंधी याचिकाएं हाई कोर्ट की मुख्यपीठ जबलपुर में ही सुने जाने की व्यवस्था थी, अत: यह विशेष मामला यहीं दायर हुआ।
पीएमटी एडमिशन रूल-2003 की संवैधानिक वैधता को दी थी चुनौती :
यह मामला पीएमटी में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग को 50 प्रतिशत निर्धारित आरक्षण के स्थान पर बढ़ाकर 64 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के रवैये को चुनौती से संबंधित था। यह कदम पीएमटी एडमिशन रूल-2003 में संशोधित प्रविधान जोड़कर उठाया गया था। लिहाजा, याचिकाकर्ता मयंक जैन की ओर से पीएमटी एडमिशन रूल-2003 की संवैधानिक वैधता को याचिका के माध्यम से चुनौती दी गई।
सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा साहनी वाले न्यायदृष्टांत ने दिलाई जीत :
हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश कुमार राजारत्नम व न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की युगलपीठ के समक्ष याचिका की सुनवाई शुरू हुई। मैंने पिटीशन ड्राफ्ट करने के साथ कानूनी बिंदु तलाशने शुरू किए। इसी प्रक्रिया में मेरी नजर एमपी लॉ जर्नल में प्रकाशित सुप्रीम कोर्ट के 1992 में पारित इंदिरा साहनी वाले न्यायदृष्टांत पर पड़ी, जिसे मैंने तीन दिन तक चली मैराथन बहस के दौरान रेखांकित करते हुए दलील दी किसी भी सूरत में आरक्षण का कुल प्रतिशत 50 से अधिक नहीं हो सकता। चूंकि पीएमटी एडमिशन रूल-2003 के अनुचित प्रविधान के कारण ऐसा हो रहा है, अत: इसे असंवैधानिक करार दिया जाए।
राज्य शासन की ओर से याचिका का हर संभव विरोध किया गया :
मध्य प्रदेश शासन की ओर से तत्कालीन महाधिवक्ता विवेक कृष्ण तन्खा ने पक्ष रखा। चूंकि वह मध्य प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनाव का वर्ष था, अत: तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के दिशा-निर्देश पर राज्य शासन की ओर से याचिका का हर संभव विरोध किया गया। जिसके जवाब में मैंने याचिकाकर्ता मंयक जैन के पीएमटी में बेहतर स्कोर का हवाला देते हुए साफ किया कि यदि आरक्षण का प्रतिशत 64 से घटाकर पूर्ववत 50 के दायरे में न लाया गया तो उसका डाक्टर बनने का सपना चूर-चूर हो जाएगा। इन तर्कों से सहमत होकर हाई कोर्ट ने राजनीतिक मंशा को दरकिनार करते हुए वास्तव में न्याय करने का मन बना लिया।
इस तरह मयंक जैन की जीत हुई, उसका डाक्टर बनने का सपना पूरा हुआ :
हाई कोर्ट ने सुनवाई पूरी करने के बाद याचिका मंजूर करते हुए पीएमटी एडमिशन रूल-2003 के अनुचित प्रविधान को असंवैधानिक करार दे दिया। इस तरह सामान्य वर्ग के छात्र मयंक जैन की जीत हुई। न्यायपूर्ण आरक्षण लागू होने के कारण उसे मेडिकल कालेज में एमबीबीएस सीट पर दाखिला मिला और उसके डाक्टर बनने का सपना पूरा हो गया। वह उन दिनों अपने गांव का इकलौता डाक्टर था। कालांतर में उसने पीजी डिग्री भी हासिल की।
इस एक केस ने मेरी वकालत को यू-टर्न दे दिया :
बहरहाल, यह जीत महज मयंक की नहीं बल्कि भविष्य में मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी दूसरी अन्यायपूर्ण गतिविधियों से हलकान छात्रों की ओर से पक्ष रखकर जीत दिलाने की ह्दय में अलख जगा चुके मेरे जैसे वकील के लिए भी मील का पत्थर साबित हुई। कुल मिलाकर इस एक केस ने मेरी वकालत को यू-टर्न दे दिया। मुझे मध्य प्रदेश हाई कोर्ट से लेकर देश के अन्य हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट तक मेडिकल स्टूडेंट्स की ओर से पक्ष रखने वाले वकील के रूप में विशेष पहचान मिल गई।