History of Jabalpur: ब्रजेश शुक्ला, जबलपुर। नर्मदा की कल-कल धारा, संगमरममर की वादियां, हरित क्षेत्र, जंगल और प्राकृतिक सौंदर्य। यह नजारा यहां सदियों से है। सिर्फ बदला है तो वह है नाम। त्रिपुरी, जाबालिपुरम, जबलपुर, जब्बलपोर और फिर जबलपुर। किसी भी शहर की बसाहट में वहां नदी प्रमुख स्थान रखती है। जबलपुर के लिए यह सौभाग्य है कि यहां शिव पुत्री मां नर्मदा की धारा मिलती है। गोंड शासकों के इस क्षेत्र में मुगलों के बाद मराठा और फिर अंग्रेजों ने भी शासन किया, लेकिन इसकी पहचान हमेशा महर्षि जाबालि के नाम से ही रही। जिनका उल्लेख रामायण के साथ ही नौ पुराणों और महर्षि जाबालि द्वारा विरचित जाबालदर्शनोपनिषद्, जाबालोपनिषद् और जाबाल्युपनिषद उपनिषदों में मिलता है। शहर की पहचान आध्यामिक क्षेत्र के साथ ही ऐतिहासिक क्षेत्र में भी महत्व रखती है।
ऋषियों की तपोभूमि रहा जबलपुर
शहर की खास तौर पर पहचान ऋषियों की तपोभूमि से है। भेड़ाघाट क्षेत्र महर्षि भृगु का क्षेत्र था। त्रिपुरी काल में उनका क्षेत्र भरूच तक था। उनके वंशज जमदग्नि और परशुराम थे। वे भी इस क्षेत्र में भ्रमण कर तपस्या करते थे। इनका क्षेत्र मालवा और गुजरात तक था। कार्तवीर्य अर्जुन के समय त्रिपुरी का चरमोत्कर्ष हुआ परंतु भगवान परशुराम से युद्ध के उपरांत त्रिपुरी श्रीविहीन हो गई। वहीं महर्षि जाबालि का क्षेत्र सुतीक्ष्ण आश्रम सतना चित्रकूट से कुंडम, बघराजी, मंडला के पहले, पाटन, कटंगी और वर्तमान का जबलपुर क्षेत्र था। जो एक गोल घेरा की तरह बनता है। इस क्षेत्र को तब से जाबालिपुरम के नाम से लोग जानने लगे। पुन: महान कलचुरियों के समय त्रिपुरी का उत्थान हुआ। इसके बाद जब फिर त्रिपुरी का पराभव हुआ तब राजा जाजल्ल देव के समय क्षेत्र को जाजल्लपुर भी कहा गया। यहां अन्य राजा भी आए जो जबलपुर नाम का ही उल्लेख करते रहे।
जबलपुर के नाम को लेकर अंग्रेज अधिकारियों में हुआ था मनोरंजक विवाद :
इतिहास के पन्नों में शहर के नाम को लेकर एक मनोरंजक विवाद भी सामने आता है। बात 25 जनवरी 1937 की है। उस समय ग्रिक्सन जबलपुर में डिप्टी कमिश्नर थे और ग्रीनफील्ड कमिश्नर थे। ग्रिक्सन का तर्क था कि जब्बलपोर को जबलपुर लिखें तो अंग्रेजी में शब्द छोटे हो जाएंगे और शक्ति का अपव्यय भी बंद हो जाएगा। इस शब्द को दस हजार नागरिक किसी न किसी रूप में लिखते हैं। कमिश्नर ग्रीनफील्ड का कहना था कि यदि हम इस शब्द को बदलेंगे तो सारी रेल की टिकटें फेंकना पड़ेंगी और पोस्ट आफिसों की सीलें बदलना पड़ेंगी। इसलिए इस शब्द को बदलना उचित नहीं है।
निष्कर्ष यह निकला कि वे अपने-अपने कार्यालयों में इच्छानुसार जब्बलपोर या जबलपुर लिखेंगे और दोनों अधिकारियों को कोई आपत्ति नहीं होगी। इसका जबलपुर अतीत दर्शन में सविस्तार उल्लेख है। पुरातत्वविद्, पुरालिपि विशेषज्ञ तथा अंग्रेजों के समय के कुशल प्रशासक रहे डा. हीरालाल राय ने अपनी डा. हीरालाल : एक संकलन के अंतर्गत जबलपुर-ज्योति में लिखा था कि कोई कहते हैं कि इन पहाड़ियों के कारण इस शहर का नाम जबलपुर रखा गया। अरबी में जबल का अर्थ पहाड़ी होता है, परंतु यह ठीक नहीं है। खोज से जान पड़ता है कि इसका असल नाम जाबालि पत्तन था अर्थात जाबालि ऋषि का बसाया हुआ नगर।
बाल्मीकि रामायण में मिलता है उल्लेख
निरंजनी अखाड़ा के महामंडलेश्वर स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरि बताते हैं कि बाल्मीकि रामायण में महर्षि जाबालि का उल्लेख मिलता है। जो नर्मदा से चित्रकूट तक विचरण करते थे। जबलपुर में वे चट्टानों के नीचे तपस्या करते थे। तपस्वी महर्षि का नाम अमर और सार्थक रहे इसलिए इस क्षेत्र का नाम जाबालिपुरम रखा गया था। महामंडलेश्वर जी बताते हैं कि उन्होंने अपने बुजुर्गों से सुना था कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जबलपुर आए और उन्होंने इसे गुंडों का शहर कहा। इसके बाद जब आचार्य विनोवा आए तो यह बात बताई गई तो उनका कहना था कि अरे जिस शहर में कल-कल निनादिनी नर्मदा बह रही हो वह शहर संस्कारधानी कहे जाने योग्य है। जाबालि ऋषि ने जिस शहर में तप किया हो वो जाबालि नगर है जाबालिपुरम है।
महर्षि जाबालि के वृहत आश्रम क्षेत्र से स्थापित हुआ, जाबालिपुरम-जबलपुर
प्रसिद्ध इतिहासकार और इतिहास संकलन समिति के उपाध्यक्ष डा. आनंद सिंह राणा बताते हैं कि तथाकथित सेक्युलर और वामी इतिहासकारों ने हूण राजकुमारी आवल्ल देवी के नाम पर तो कभी हूण शब्द से इस नगर का नामकरण बताया है जो कि हास्यास्पद है। वहीं दूसरी ओर अबुल फजल की किताब में जबल शब्द का उल्लेख है, जिसका अर्थ पहाड़ी होता है, जिसके शब्द से जबलपुर को जबरदस्ती जोड़ा गया और अंग्रेजों ने अबुल फजल की पुस्तक आईने अकबरी से जानबूझकर संदर्भ लेते हुए इस नगर को जब्बलपोर का नाम दिया। फिर इसे जबलपुर नाम दिया गया। जबकि वास्तविकता यह है कि जाबालिपुरम से अपभ्रंश होकर मराठा काल से ही जबलपुर कहा जाने लगा था।
इसलिए शासन द्वारा भी यही नाम शिरोधार्य हुआ और भारत में इसी नाम से विख्यात है। इस संबंध में प्रो. कपिल देव मिश्र कुलपति के निर्देशन में रानी दुर्गावती विवि में डा. उमेश सिंह के मार्गदर्शन में साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा दो राष्ट्रीय स्तर की व्याख्यान माला आयोजित की गई, जिसमें अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन सचिव डा. बालमुकुंद पांडे, श्रीधर पराडकर, आचार्य कृष्णकांत चतुर्वेदी, स्वामी अखिलेश्वरानंद गिरि, स्वामी चैतन्यानंद महाराज, डा. मुकुंददास, डा. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी एवं प्रो. अलकेश चतुर्वेदी द्वारा ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित किया गया।