जबलपुर, (ब्रजेश शुक्ला)। आज भले ही जबलपुर धुआंधार जलप्रपात, संगमरमरी वादियां और मदनमहल पहाड़ के बैलेंस राक के लिए प्रसिद्ध हों, लेकिन यह नजारे प्रकृति में त्रिपुरी के समय से हैं। त्रिपुरी और उसकी तीन प्रमुख नगरी का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है। इसकी पौराणिकता और ऐतिहासिकता आज भी विद्यमान है। त्रिपुरी को कई मायनों में परंपरा के लिए भी जाना जाता है, क्योंकि तिल दान, खिचड़ी और दीपदान जैसी परंपरा भी त्रिपुरी क्षेत्र से शुरू हुई। यही वह क्षेत्र है, जहां भगवान शंकर ने एक साथ तीन असुरों का वध किया। इसके बाद यहां भगवान त्रिपुरेश्वर की स्थापना की गई। त्रिपुरी राज्य की सीमाएं वर्तमान के मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों तक फैली हुई थीं।
आज भी मिलते हैं प्राचीन अवशेष
वर्तमान में जबलपुर-भेड़ाघाट रोड में तेवर गांव है। इसे प्राचीन त्रिपुरी कहा जाता है। जहां आज भी खनन के दौरान प्राचीन अवशेष मिलते हैं। यहां से सुविधा के लिए कौशाम्बी, उज्जयिनी, और प्रतिष्ठानपुर, आधुनिक पैठन को जोड़ते हुए कई मार्ग थे। इन्हीं मार्ग पर त्रिपुरी भी था। जहां से व्यापारिक काफिले निकलते थे। इसका उल्लेख मार्कण्डेय पुराण, मत्स्य, वायु, वामन और ब्रह्मांड पुराण में मिलता है।
स्वर्ण, रजत और लौहपुरी थी अभेद नगरी
इस क्षेत्र में तारकासुर का वध भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय ने किया था, जिसका बदला लेने के लिए उसके पुत्र तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली ने ब्रह्मा जी की तपस्या की और वरदान पाकर तीन नगरी बनाईं। ये तीनों अभेद नगरी स्वर्णपुरी, रजतपुरी और लौहपुरी थी। ये तीनों आकाश में उड़ती थीं और इससे तीनों भाई आतंक मचाते थे। कालगणना में तय था कि ये तीनों नगरी एक सीध में एक हजार साल में एक बार आएंगी। तभी इसका विनाश किया जा सकता है। तब भगवान शंकर ने युद्ध कर तीनों नगरी का विनाश किया। इसके बाद यहां भगवान त्रिपुरेश्वर की स्थापना की गई। ब्रह्मचारी स्वामी चैतन्यानंद महाराज बताते हैं कि इसका उल्लेख लिंग पुराण, स्कंद पुराण और मत्स्य पुराण में मिलता है। इस युद्ध के बाद उज्जयिनी और त्रिपुरी में दीपदान की परंपरा शुरू हुई थी।
तिल दान से है पहचान
त्रिपुरी क्षेत्र के तिलवाराघाट का नाम भी मकर संक्रांति के तिल के दान के जुड़ा है। मकर संक्रांति की शुरूआत भी यहीं से हुई है। यहां का मेला प्रसिद्ध है जिसमें नर्मदा का यह तट दो दिनों तक भरा रहता है। इतिहासकार डा. आनंद सिंह राणा बताते हैं कि कल्चुरिकाल में 1100 साल पहले राजा युवराज देव प्रथम ने इस मेला की शुरुआत की थी। इससे पहले यहां मड़ई भरती थी। संक्रांति में तिल के साथ ही खिचड़ी दान की भी परंपरा यहीं से शुरू हुई।