-मांडू सूबे से व्यापारियों को मिलती थी सुरक्षा
अहद खान, झाबुआ
बीते दस साल से झाबुआ और धार जिले की सीमा पर माछलिया घाट के कानवाई को खत्म करने की जद्दोजहद चल रही है। पिछले दिनों जिले की पुलिस ने लगभग साढ़े 3 करोड़ रुपए में नए संसाधन विकसित कर इसे बंद करने की योजना बनाई है, लेकिन इस रास्ते पर लूट और हमलों का डर महज दशकों पुराना नहीं, बल्कि सदियों पुराना है। 400 साल पहले भी झाबुआ-धार के बीच के रास्ते पर यात्रियों को सुरक्षा मुहैया कराई जाती थी। इसकी व्यवस्था मांडू सूबे के सूबेदार करते थे। उत्तर भारत से दक्षिण की ओर जाने वाले व्यापारी इस रास्ते का उपयोग करते थे। उनके काफिलों को एक साथ इकट्ठा कर हथियारबंद सैनिक अपनी निगरानी में लाते-ले जाते थे।
जिले सहित मालवा-निमाड़ के इतिहास में रुचि रखने वाले साहित्यकार-इतिहासकार इस तथ्य को सही बताते हैं। इतिहासकारों के मुताबिक कुछ किताबों और किवदंतियों से ये साफ है कि झाबुआ का घाट वाला जंगल से आने वाला रास्ता कभी राहगीरों के लिए सुरक्षित नहीं रहा। 400 साल पहले भी खतरा ऐसा ही था, जैसा आज समझा जाता है। और शायद इससे भी ज्यादा। सदियों पहले अपना कीमती सामान लेकर गुजरने में व्यापारियों को डर लगता था। बार-बार व्यापारियों के साथ लूट और डकैती होने के बाद मांडू सूबेदार ने सबसे पहले यहां सुरक्षा देना शुरू की। कुछ साल बाद मुगल शासन ने अपने लड़ाके यहां भेजे, जिन्होंने लुटेरे राजा की हत्या कर मुगल सत्ता के अधीन राजपूत राजशाही स्थापित की। केशवदास राठौर ने झब्बू नायक की हत्या कर 1607 में राजपूत राजशाही की स्थापना की। तब से यहां के रास्तों पर स्थानीय राजा की सेना कानवाई लगाकर काफिलों को सुरक्षा देने लगी। झाबुआ रियासत के रूप में केशवदास राठौर को 55 गांव (महाल) की जागीर मिली थी।
ऐतिहासिक तथ्य
-इतिहासकार डॉ. केके त्रिवेदी के अनुसार पूर्व में यहां रियासत वाली बात नहीं थी। लबाना वंश के लोगों की स्वयंभू सत्ता थी। झाबुआ में झब्बू नायक, थांदला में थाना नायक, रानापुर में राणा नायक थे। 15वीं सदी में आसपास के क्षेत्र में मुगल सत्ता का सूबा था। मांडू एक बड़ा सूबा था। बार-बार व्यापारियों से लूटपाट की शिकायतें मिलती थीं। इस पर सुरक्षा दी जाने लगी। फिर भी यहां लुटेरों का आतंक बढ़ता चला गया तो मुगल राजा जहांगीर ने केशवदास को यहां सत्ता की स्थापना के लिए भेजा।
-डॉ. जय वैरागी ने बताया कि कानवाई का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। मालवा-निमाड़ के इतिहास पर गहन शोध करने वाले डॉ. नेमीचंद जैन ने खुद अपनी एक पुस्तक में इसका ब्योरा दिया है। यहां से ऊंट-घोड़ों पर निकलने वाले यात्रियों के आगे-पीछे सैनिकों की टुकड़ियां चलती थीं। रात में यात्रा को टाला जाता था। जहां कहीं यात्रियों का पड़ाव होता, वहां सेना कड़ी निगरानी रखती थी। घना जंगल और पहाड़ी इलाका होने से खतरा ज्यादा था।
-वैसे तो झाबुआ का नाम झब्बू नायक के नाम पर पड़ा। आमतौर पर झब्बू नायक को यहां का पहला राजा समझा जाता है, लेकिन इतिहासकारों के मुताबिक वो शासक नहीं था। झाबुआ के पहले गजेटियर में ये शब्द लिखे हैं कि झब्बू नायक की मौत के बाद झाबुआ की संपन्नता बढ़ी।
हवाई पट्टी थी रणखेत
झब्बू नायक की हत्या के पीछे भी रोचक कहानी है। जहांगीर के आदेश के बाद केशवदास अपने साथियों के साथ घोड़ों के व्यापारी बनकर झाबुआ आए। गोपालपुरा में हवाई पट्टी वाली जगह पर तब बाजार लगता था। यहां झब्बू नायक ने घोड़ों के व्यापारियों से 50 घोड़े खरीदे। व्यापारियों ने इस बिक्री के बाद रात को भोज और नृत्य का आयोजन किया। इसमें झब्बू नायक को बुलाया गया। झब्बू नायक ने यहां जमकर शराब पी। नशे में चूर होने पर केशवदास राठौर ने तलवार से उसकी हत्या कर दी। ये तलवार आज भी झाबुआ के राजमहल के मंदिर में रखी हुई है।