वीरेंद्र जैन, नईदुनिया न्यूज, राजगढ़। 22 जनवरी को अयोध्या में होने वाले श्रीरामलला की प्राण-प्रतिष्ठा महाेत्सव के साक्षी नगर के यज्ञाचार्य एवं पांच धाम एक मुकाम माताजी मंदिर के प्रमुख 93 वर्षीय मुरारीलालजी भारद्वाज के पोते हेमंत भारद्वाज बनेंगे। दरअसल, वे श्रीमन माधव गौड़ेश्वर वैष्णवाचार्यश्री पुण्डरीक गोस्वामीजी महाराज के सान्निध्य में 21 जनवरी को अयोध्या पहुंचकर 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव में शामिल होंगे।
बड़ी बात यह है कि यज्ञाचार्य हेमंत के दादाजी ने 1990 में सैकड़ों किमी का सफर पैदल तय कर कारसेवा में भागीदारी निभाई थी। उस वक्त किए संघर्ष का फल 22 जनवरी को पोते हेमंत को प्राप्त होने जा रहा है। कई भक्त आयोजन के साक्षी बनने के लिए लालायित हैं, लेकिन चुनिंदा लोगों को ही आमंत्रण मिला है।
पांच धाम एक मुकाम माताजी मंदिर के 93 वर्षीय मुरारीलालजी भारद्वाज लड़खड़ाती जुबान से बताते हैं कि आज से ठीक 32 वर्ष पहले जब हम करीब 62 वर्ष के थे, तब अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए हुए प्रयास का हिस्सा रहे थे। उन्होंने बताया कि वैसे तो सरदारपुर तहसील से उस वक्त करीब 45 से ज्यादा लोग पहुंचे थे, लेकिन नगर से जाने वालों में वे खुद, सत्यनारायण माहेश्वरी और दुर्गादास टेलर शामिल रहे। इनके अतिरिक्त क्षेत्र से विजय व्यास, विपुल पंवार, अर्जुनसिंह भाटी व बलराम कुमावत भी कारसेवा का हिस्सा रहे।
गुरुजी बताते हैं कि आज जब राम मंदिर में रामलला विराजित हो रहे हैं तो आंखों में खुशी के आंसू आ जाते हैं। 1992 का वह दौर हमने देखा है, जिसमें कई लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ गई थी। आज उन कारसेवकों की मृत्यु को एक मुकाम मिला है।
भारद्वाज बताते हैं कि 1992 में जब कारसेवक अयोध्या पहुंचे तो हमारे मन में भी इसका हिस्सा बनने की ज्योति जाग उठी। हम सरदारपुर तहसील से बस पकड़कर इंदौर पहुंचे। वहां से हम किसी अन्य साधन से मानधाता तक पहुंचे ही थे कि थानेदार गुप्ता ने हमें रोक लिया। हमने बताया कि हमारे पास कुछ नहीं है, घर कैसे जाए, इस पर थानेदार ने पांच सौ रुपये की मदद की थी, लेकिन हम घर नहीं आए और मांधाता से बरेली होते हुए करीब 125 किमी का सफर पैदल तय कर अयोध्या पहुंच गए। यहां कारसेवकों में उत्साह देखकर खुद को नहीं रोक पाए और हिस्सा बन गए।
वयोवृद्ध भारद्वाज ने बताया कि इस पूरे वाकिए में करीब एक महीने का वक्त लगा था। अयोध्या से लौटने के दौरान काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन जैसे-तैसे बचते-बचाते एक महीने के भीतर हम अपने घर लौट आए थे। उसके बाद से ही लगातार अयोध्या में होने वाले मसलों पर हमारी निगाह आज भी बनी रहती है।
वे बताते हैं कि अयोध्या जाने से पहले हमने तहसील में पादुका पूजन का कार्यक्रम भी किया था। तहसील के करीब 82 गांवों में घुम-घुमकर लोगों से पादुका पूजन कराया था, जिसे लेकर हम अयोध्या पहुंचे थे। भारद्वाज रुंधे गले से बताते हैं कि वह दौर बेहद अलग था और आज का दौर अलग है। उस वक्त लोग एक-दूसरे पर जान देने के लिए तैयार रहते थे, लेकिन आज मामला उलटा हो गया है।
भानगढ़ के 53 वर्षीय बलराम कुमावत बताते हैं कि 1992 में जब मैं 22 वर्ष का था, तब कारसेवकों के साथ जाने का जबरदस्त जोश था। इसके चलते धार पहुंचे तो मालूम हुआ कि सिर्फ रजिस्ट्रेशन वाले लोग ही कारसेवक के रूप में अयोध्या जा रहे हैं। मुझे वापस लौटने के लिए भी कह दिया गया, लेकिन मैं नहीं माना। किसी ने मुझे सलाह दी कि इंदौर से मक्सी पहुंच जाए, वहां से ट्रेन मिलेगी। मैंने ऐसा ही किया और मक्सी से ट्रेन पकड़कर अयोध्या पहुंचे। यहां विभिन्न प्रदेशों से लोग आए हुए थे।
चार दिसंबर 1992 की शाम को निकले कुमावत गुजरात से आने वाली साबरमती एक्सप्रेस में बैठकर अयोध्या पहुंचे। यहां भगवामय वातावरण था। जयघोष से पूरी अयोध्या नगरी गूंज रही थी। अगले दिन सरयू नदी में स्नान करने के बाद रामलला के दर्शन के लिए आगे बढ़े तो दुख हुआ कि प्रभु श्रीराम एक छोटे से पालने में बैठे हुए हैं। भीड़ भयंकर थी वहां का माहौल जबरदस्त था। उसी रात ट्रेन से वापसी हो गई। इस दौरान कई जगह पथराव झेला तो बाराबांकी में गोलियां भी चल रही थी।