
असल में उत्तर भारत में जिसे कार्तिकेय कहा जाता है, उसे ही दक्षिण में मुरुगन के नाम से जाना जाता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जो दक्षिण में मुरुगन है, वही उत्तर में कार्तिकेय है, शिव के पुत्र कार्तिकेय...। बता रहे हैं देवदत्त पट्टनायक।
दक्षिण भारतीय फिल्मों और साहित्य में अक्सर हम पौराणिक पात्र मुरुगन का उल्लेख पाते हैं। हमें आश्चर्य होता है कि उत्तर भारत में हम इस नाम के किसी भी पौराणिक पात्र को नहीं जानते हैं। जरा गहराई में जाते हैं तो पाते हैं कि असल में उत्तर भारत में जिसे कार्तिकेय कहा जाता है, उसे ही दक्षिण में मुरुगन के नाम से जाना जाता है।
इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जो दक्षिण में मुरुगन है, वही उत्तर में कार्तिकेय है, शिव के पुत्र कार्तिकेय...। 1,500 वर्ष पहले के तमिल संगम साहित्य में श्रुत परंपरा के आधार पर चर्चित मुरुगन का उल्लेख मिलता है। मुरुगन का संबंध पर्वतों से माना जाता है। यह वो वक्त था, जब वेदों का प्रचार लगभग आधे दक्षिण भारत तक पहुंच गया था।
उसी तरह बंजर रेगिस्तान का संबंध देवी काली से जोड़ा जाता है, समुद्र का संबंध वरुण से और जंगलों का विष्णु से और खेतों को इंद्र से जोड़ा जाता है। मुरुगन पर्वत के शीर्ष पर खड़े होते हैं और शिव के पुत्र की तरह प्रतिष्ठा पाते हैं। फिर भी स्थानीय मान्यता के अनुसार शिव स्वयं भी मुरुगन से 'प्रणव"(ओम की ध्वनि) का रहस्य जानते हैं, जो मुरुगन को अपने ही पिता का शिक्षक बनाता है।
हममें से ज्यादातर उत्तर-भारतीय मुरुगन या कार्तिकेय की कहानियों से अनजान हैं, लेकिन तमिलनाडु में ये कथाएं बहुत लोकप्रिय हैं। ये कथाएं अरुपति विटू की प्रशंसा करती हैं, ये वे छ: मंदिर हैं जो यहां के मान्य धार्मिक स्थल हैं। ये मंदिर 1000 हजार साल पहले अलग-अलग राजाओं द्वारा बनाए गए हैं।इसलिए यहां इनकी बहुत धार्मिक मान्यता हैं। सभी छ: मंदिर मुरुगन के जीवन की छ: अलग-अलग घटनाओं के प्रतीक स्वरूप निर्मित किए गए हैं।
स्वामीमलाई: वह मंदिर हैं, जहां मुरुगन ने अपने पिता को ओम शब्द का रहस्य बतलाया था। वेदों के ज्ञाता प्रजापति ब्रह्मा भी 'ओम" को सिर्फ शब्द के तौर पर ही जानते थे, इस शब्द का अर्थ नहीं जानते थे।
पलानी: यहां का एक बेहद लोकप्रिय मंदिर है पलानी। यहां मुरुगन शिष्य के तौर पर हैं, जिनके हाथ में दंड है। इसलिए उन्हें दंडिपति कहा जाता है। यहां वे अपने पिता द्वारा गणपति से भेदभाव के चलते अपने कैलाश पर्वत पर अपने पिता शिव का घर छोड़कर आए थे।
थिरुचंदूर: यह एकमात्र मंदिर है जो पर्वत पर न होकर समुद्र किनारे पर स्थित है। यहां वे योद्धा हैं, जिन्होंने सुरपादमन को हराया था। यहां सुरपादमन पश्चाताप के बाद उनके वाहन मोर के रूप में जन्म लेता है।
थिरुप्पारामकुनरम: इंद्र की बेटी देवयानी सुरपादमन पर विजय हासिल करने की वजह से मुरुगन पर मोहित होती है, इसलिए वे यहां देवयानी से विवाह करते हैं।
थिरुथानी: इस जगह वे जनजातिय राजकुमारी वल्ली से प्रेम-विवाह करते हैं। हालांकि कुछ कथाओं में वे यहां देवयानी से विवाह करते हैं।
पझामुड्रिचोलाई: यहां वे गृहस्थ के रूप में पूजे जाते हैं। वे अपनी दोनों पत्नियों दिव्य देवयानी और लौकिक वल्ली के साथ रहते हैं। शिव भी अपनी शक्ति के साथ यहीं निवास करते हैं। यहीं दो विभिन्न विचार एकसाथ रहते हैं और यही स्थानीय हिंदुत्व की खूबसूरती है।
इस तरह मुरुगन का अध्ययन हमें हिंदुत्व में निहित विविधता के दर्शन कराता है। और जब हम हर चीज के सूत्र वैदिक ऋचाओं में, वैदिक विचार में ढूंढते हैं, तब ये कथाएं हिंदुत्व की सहायक कथाओं के रूप में, वेदों के हिंदू विचार को बौद्धिक पृष्ठभूमि में समझाने का आधार प्रस्तुत करती हैं। हम हिंदुवाद की उस प्रवृत्ति को देख सकते हैं जो सनातन है, निरंतर है।
यह एक यात्रा है परिवार से उपेक्षित होने के बाद संन्यासी होने और फिर गृहस्थ होने की। यह स्पष्ट तौर पर दक्षिण भारत में उस समय प्रचलित बौद्धों और जैनों की मठवादी परंपरा के प्रति अस्वीकरण है। मुरुगन के मंदिरों का संबंध असुरों और राक्षसों से भी माना जाता है। यहां ऐसे मंदिर भी है जहां सुपरदमन के छोटे भाई तारकासुर की आत्मा की शांति के लिए मुरुगन शिव से प्रार्थना करते हैं।
इस तरह की कथा भी है कि किस तरह से पलानी के पर्वत को हिडिम्बा ने हिमालय से अलग निकालकर यहां स्थापित किए? ये पर्वत मुरुगन की मां ने उन्हें उपहार स्वरूप दिए हैं ताकि वे दक्षिण में रहने पर उन्हें पिता के घर कैलाश की याद न आएं।
इन मंदिरों में मुरुगन कहीं आदिवासी, वीर राजा के तौर पर भी चित्रित किया गया है। कहीं वे वैदिक काल के पुरोहित के तौर पर भी दिखाई पड़ते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि हर क्षेत्र के अलग-अलग समुदाय उन्हें अपनी तरह से अपना समझते हैं।