
डिजिटल डेस्क। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने अरावली पहाड़ियों को लेकर पर्यावरणविदों और आम लोगों के बीच बहस छेड़ दी है। इस आदेश को ‘100 मीटर का फैसला’ कहा जा रहा है। इसमें कोर्ट ने साफ किया है कि अरावली क्षेत्र में 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अपने आप ‘जंगल’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
‘सेव अरावली ट्रस्ट’ से जुड़े विशेषज्ञ विजय बेनज्वाल और नीरज श्रीवास्तव ने इस फैसले पर गंभीर चिंता जताई है। उनका कहना है कि हरियाणा में सिर्फ दो ही पहाड़ियां 100 मीटर से ज्यादा ऊंची हैं,एक तोसाम (भिवानी जिला) और दूसरी मधोपुरा (महेंद्रगढ़ जिला)। ऐसे में बाकी इलाकों के संरक्षण पर खतरा पैदा हो सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पूरे इकोसिस्टम पर असर पड़ेगा। अरावली थार मरुस्थल से उठने वाली धूल को रोकती है, भूजल रिचार्ज में मदद करती है और जैव विविधता को बनाए रखती है। यदि संरक्षण कमजोर हुआ तो धूल और प्रदूषण बढ़ेगा, खासकर दिल्ली में जहां हालात पहले से ही खराब हैं।
इसके साथ ही भूजल स्तर नीचे जाएगा, बोरवेल सूख सकते हैं, गर्मी अधिक तीव्र हो सकती है और सांस से जुड़ी बीमारियां बढ़ सकती हैं। रहने योग्य हालात बिगड़ने से लोगों के पलायन की आशंका भी जताई जा रही है।
विजय बेनज्वाल और नीरज श्रीवास्तव का कहना है कि इस फैसले से उद्योगपतियों को फायदा हो सकता है क्योंकि खनन और निर्माण आसान हो जाएगा, जबकि आम जनता को नुकसान उठाना पड़ेगा। अरावली मरुस्थलीकरण को रोकती है। यदि यह कमजोर पड़ी तो थार का रेगिस्तान आगे बढ़ सकता है। दुबई में धूल की समस्या इसलिए नहीं है क्योंकि वहां प्राकृतिक बैरियर मजबूत हैं, जबकि दिल्ली में अरावली पर लगातार दबाव बढ़ रहा है।
दिल्ली का पर्यावरण संतुलन क्यों जरूरी?
विशेषज्ञों का कहना है कि ब्रिटिश काल में दिल्ली को राजधानी इसलिए चुना गया क्योंकि एक ओर अरावली और दूसरी ओर यमुना नदी थी, जो प्राकृतिक संतुलन बनाए रखती थीं। कोलकाता से राजधानी दिल्ली लाने के पीछे यही बड़ा कारण था। उनका मानना है कि इस मामले में कोर्ट को केंद्र सरकार के प्रस्ताव को पूरी तरह स्वीकार नहीं करना चाहिए था और इस विषय पर और गहन अध्ययन जरूरी था।
सेव अरावली अभियान की अपील
ट्रस्ट ने घोषणा की है कि 150 जिलों के जिलाधिकारियों को ज्ञापन सौंपे जाएंगे। साथ ही ऑनलाइन पिटिशन पर अब तक 41 हजार लोग हस्ताक्षर कर चुके हैं। अभियान का उद्देश्य फैसले के संभावित दुरुपयोग को रोकना और अरावली को पूर्ण संरक्षण दिलाना है। अरावली को उत्तर भारत की ‘लाइफलाइन’ माना जाता है और यदि विशेषज्ञों की आशंका सही साबित हुई तो दिल्ली-एनसीआर सहित पूरे क्षेत्र पर गंभीर असर पड़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने असल में क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अरावली क्षेत्र में 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ियों को अपने आप ‘जंगल’ नहीं माना जाएगा। इसका अर्थ यह है कि किसी भूमि को केवल अरावली रेंज में होने के आधार पर वन घोषित नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने यह भी कहा कि जमीन का वर्गीकरण उसके रिकॉर्ड, अधिसूचना और जमीनी स्थिति के आधार पर तय किया जाएगा, न कि सिर्फ ऊंचाई को आधार बनाकर।
पर्यावरण पर खतरा या विकास का रास्ता?
इस फैसले को लेकर विवाद इसलिए खड़ा हुआ है क्योंकि इससे अरावली के संरक्षण के कमजोर होने का रास्ता खुल सकता है। खतरा फैसले से ज्यादा उसके दुरुपयोग में है। यदि भूमि रिकॉर्ड बदले गए, पर्यावरण प्रभाव आकलन को नजरअंदाज किया गया या विकास के नाम पर ढील दी गई तो दिल्ली-एनसीआर की हवा और जहरीली हो सकती है, भूजल स्तर और नीचे जा सकता है और गर्मी ज्यादा बढ़ सकती है।
अरावली गुजरात से राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक करीब 800 किलोमीटर में फैली है। हरियाणा और राजस्थान में इसका बड़ा हिस्सा राजस्व भूमि के रूप में दर्ज है, जिसे अब तक संरक्षण मिला हुआ था। फैसले के बाद अब राज्य सरकारें तय करेंगी कि कौन-सी जमीन वन है और कौन-सी नहीं, जिससे लोगों में चिंता बढ़ गई है।
धूल बैरियर पर खतरा
अरावली एनसीआर के लिए एक प्राकृतिक डस्ट बैरियर है। यदि यहां खनन या वन कटाई बढ़ी तो PM10 और PM2.5 जैसे प्रदूषक कण तेजी से बढ़ सकते हैं और पहले से खराब AQI और बिगड़ सकता है।
अध्ययनों के अनुसार, अरावली के नंगे हिस्सों से उड़ने वाली धूल सर्दियों की स्मॉग में बड़ा योगदान देती है। साथ ही अरावली बारिश के पानी को रोककर धीरे-धीरे भूजल तक पहुंचाती है। यदि यह कमजोर हुई तो हरियाणा-राजस्थान बेल्ट में जल संकट और गहरा सकता है। इसके अलावा, अरावली एनसीआर का प्राकृतिक कूलिंग सिस्टम भी मानी जाती है और कटाई बढ़ने से ‘अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट’ तेज हो सकता है।
कई लोग मानते हैं कि यह दिखावा है
कुछ लोगों का मानना है कि “अरावली बचाओ” अभियान केवल दिखावा है, लेकिन यह भी सच है कि यह फैसला जंगल कटने की गारंटी नहीं देता, बल्कि एक दरवाजा जरूर खोलता है। अब सब कुछ राज्य सरकारों की नीति और नीयत पर निर्भर करेगा।
Save Aravalli का आज जो नैरेटिव सोशल मीडिया पर उछाला जा रहा है, वो अरावली को बचाने का आंदोलन कम और एक दोगलापन भरी नैतिक नौटंकी ज़्यादा है...अरावली कोई कल पैदा हुई पहाड़ी नहीं है जिसे आज अचानक बचाने की ज़रूरत पड़ गई हो..
इसे सबसे ज़्यादा नुकसान पिछले तीन–चार दशकों में हुआ जब… pic.twitter.com/mRtgEcZXg1
— Arjun bhatt (@Arjun_homecare) December 20, 2025
इन बातों पर भविष्य
कोर्ट ने नियम स्पष्ट कर दिए हैं, अब असली परीक्षा उनके अमल की है। पर्यावरण कार्यकर्ता ‘सेव अरावली’ अभियान के जरिए इस फैसले पर नजर रखने की अपील कर रहे हैं ताकि अरावली का भविष्य सिर्फ फाइलों में नहीं, बल्कि जमीन पर भी सुरक्षित रह सके। कुल मिलाकर, नियम स्पष्ट हैं लेकिन उनका उपयोग कैसे होगा, यही तय करेगा कि यह आदेश स्पष्टता लाएगा या नए संकट की राह खोलेगा।