- गुरु मां आनंदमूर्ति
जिस प्रकार एक गुलाम को केवल अपने आका के आदेशों का पालन करना होता है, उसकी अपनी कोई पसंद-नापसंद नहीं होती, उसी प्रकार शरीर केवल मन के आदेशों का पालन करता है। व्यथित, भ्रमित, अस्वस्थ मन रोग की बुनियाद तैयार करता है।
अस्वस्थ शब्द को अक्सर रोग से जोड़कर देखा जाता है। मगर यह तो शरीर और मन के स्वस्थ व सहज न होने की अवस्था भर है। यही नहीं, मन इतना शक्तिशाली होता है कि वह शरीर में किसी भी रोग को उत्पन्ना कर सकता है। इस बात पर विश्वास करना जरा कठिन है मगर यह सच है।
आज का वैज्ञानिक अनुसंधान भी वही सिद्ध कर रहा है, जो हमारे ऋषि-मुनियों ने सदियों पहले कहा था। यह कि मन में चलने वाली गतिविधि का असर शरीर पर पड़ता है। इसलिए बीमार शरीर इस बात का संकेत हो सकता है कि मन स्वस्थ या सहज नहीं है। पहले इसी पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
जिस प्रकार एक गुलाम को केवल अपने आका के आदेशों का पालन करना होता है, उसकी अपनी कोई पसंद-नापसंद नहीं होती, उसी प्रकार शरीर केवल मन के आदेशों का पालन करता है। व्यथित, भ्रमित, अस्वस्थ मन रोग की बुनियाद तैयार करता है। यही कारण है कि कई ऐसे रोग, जिन्हें पहले महज शारीरिक दुष्क्रिया समझा जाता था, उन्हें अब मनोदैहिक पाया गया है। अत्यधिक प्रतिस्पर्धाऔर तनाव के इस दौर में चिंता और तनाव बड़े हत्यारे साबित हो रहे हैं।
मानसिक तनाव के कारण ब्लड प्रेशर में उतार-चढ़ाव आते हैं, जो ब्रेन स्ट्रोक, हृदयाघात, हेमरेज तथा पक्षाघात का कारण बन सकते हैं। कुछ जानकारों के अनुसार, कैंसर और अल्सर भी तनावग्रस्त मन का परिणाम हो सकते हैं। इन दिनों हम अक्सर युवाओं को इन रोगों का शिकार होते पा रहे हैं। बहुत संभव है कि दबाव, तनाव का शिकार मन ही इन रोगों को जन्म दे रहा हो। और जब मन ने तय कर लिया हो कि वह शरीर को स्वस्थ नहीं करेगा, तो विश्व की सर्वश्रेष्ठ दवा भी काम नहीं आ सकती।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि बेचैनी और उथल-पुथल से छटपटाता, अपने ही दिए दर्द और दुख को झेलता तथा अतीत के क्रोध, विद्वेष व दुख से चिपका मन स्वनिर्मित नरक भोग रहा होता है। फिर कैसा आश्चर्य कि ऐसे में तमाम शारीरिक प्रणालियां गड़बड़ा जाती हैं? पाचन तंत्र क्षतिग्रस्त हो जाता है, मांसपेशियां अकड़ जाती हैं, सांसें उथली-उथली-सी हो जाती हैं। इस सबसे पूरा शरीर प्रभावित होता है।
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इसके विपरीत, जब मन हर परिस्थिति में शांत और स्थिर रह पाता है, तब यदि शरीर बीमार भी हो तो खुद को ठीक कर सकता है। दिलचस्प बात यह है कि कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि असाध्य बीमारियों से ग्रस्त लोग भी जब मन को स्वस्थ व तनाव-रहित बना लेते हैं, तो वे स्वस्थ हो सकते हैं।
हां, इसमें कई अन्य कारक भी अपनी भूमिका निभाते हैं। शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक कचरे से मुक्ति पाकर लोगों के रिश्ते भी अधिक सुसंगत और संतोषप्रद हो जाते हैं। यही नहीं, इससे उनकी रोग प्रतिरोधक प्रणाली भी बेहतर बनती है और दवाइयां उन्हें अधिक लाभ दे पाती हैं। वे बेहतर सो पाते हैं और क्रमिक रूप से उनका शरीर संतुलन पा जाता है।
जब हमारा मन रूपी उत्तम औजार किसी गुरु के माध्यम से योगासन, प्राणायाम व मंत्रोच्चार द्वारा भीतर की ओर झांकने हेतु प्रक्षिक्षित होता है, तो यह हमारा सबसे अच्छा मित्र और वफादार साथी बन जाता है। फिर एक स्नेहिल, क्षमावान प्रवृत्ति, समूची सृष्टि के प्रति सहिष्णुता व आदर भाव हमारे जीवन को समृद्ध करते हैं। इस प्रकार अपने भीतर की दिव्यता से संबंध बनाकर हम स्वस्थ हो जाते हैं, हमारा कायाकल्प हो जाता है। और तब, शांति व आनंद का प्रसार करता हमारा मन स्वयं स्वर्ग बन जाता है।