
धर्म डेस्क। महाभारत युद्ध के समापन के बाद भी कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर एक महान योद्धा मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। वे थे भीष्म पितामह, जो अर्जुन के तीक्ष्ण बाणों से छलनी होने के बावजूद 58 दिनों तक 'शरशय्या' (बाणों की शय्या) पर लेटे रहे। उनके पास अपनी इच्छा से मृत्यु का चुनाव करने का वरदान था, फिर भी असहनीय पीड़ा सहते हुए उन्होंने मकर संक्रांति यानी 'उत्तरायण' होने का इंतजार किया। इसके पीछे का रहस्य आध्यात्मिक और धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है।
हिंदू शास्त्रों के अनुसार, एक वर्ष को दो प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है: उत्तरायण और दक्षिणायन। मकर संक्रांति के दिन जब सूर्य धनु राशि का त्याग कर मकर राशि में प्रवेश करता है, तो इसे सूर्य का उत्तरायण होना कहा जाता है। धार्मिक दृष्टिकोण से सूर्य का उत्तरायण काल 'देवताओं का दिन' माना जाता है, जबकि दक्षिणायन को 'देवताओं की रात्रि' कहा जाता है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जो व्यक्ति सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने शरीर का त्याग करता है, उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है और वह सीधे 'बैकुंठ धाम' को प्राप्त होता है। भीष्म पितामह जानते थे कि दक्षिणायन में देह त्यागने से जीव को पुनर्जन्म लेना पड़ सकता है। इसीलिए, पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति और आध्यात्मिक शुद्धि के उद्देश्य से उन्होंने सूर्य के देवलोक (उत्तर दिशा) की ओर उन्मुख होने तक प्रतीक्षा की।
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