धर्म डेस्क, नई दिल्ली। रक्षाबंधन भाई-बहनों के पवित्र रिश्ते का प्रतीक है और यह केवल राखी बांधने तक सीमित नहीं है। यह त्योहार सावन महीने की पूर्णिमा को मनाया जाता है और इसकी वजह से इस दिन को 'श्रावणी उपाकर्म' भी कहते हैं। देश के कई इलाकों में इस दिन ब्राह्मण समुदाय के पुरुष अपना यज्ञोपवीत (जनेऊ) बदलते हैं। यह परंपरा ऋषि-मुनियों के समय से चली आ रही है। आइए इसका महत्व जानते हैं।
जनेऊ सूत से बना एक पवित्र धागा होता है, जिसे तीन धागों को मिलाकर बनाया जाता है। ये तीन धागे ब्रह्मा, विष्णु और महेश त्रिदेवों का प्रतीक माने जाते हैं। जनेऊ को मनुष्य जीवन के तीन ऋणों से भी जोड़ा गया है। ये तीन ऋण हैं मातृ-पितृ ऋण, ऋषि, गुरु या आर्चाय ऋण (ज्ञान) हैं। जनेऊ व्यक्ति को उसके कर्तव्यों, संस्कारों और आध्यात्मिक उन्नति की याद दिलाता है।
रक्षाबंधन में पुराने जनेऊ को बदलकर नए और पवित्र जनेऊ धारण करने की वजह शरीर और आत्मा की शुद्धता को बनाए रखना है। यह एक तरह से आध्यात्मिक और शारीरिक स्वच्छता का प्रतीक है। मान्यता है कि इससे शरीर की पवित्रता बनी रहती है। ऐसी भी मान्यता है कि श्रावणी उपाकर्म जाने-अनजाने में किए गए पापों और गलतियों का प्रायश्चित करता है। नई जनेऊ धारण करना एक नई शुरुआत करने का प्रतीक है, जिसमें व्यक्ति अच्छे कर्म करने का संकल्प लेता है। इस दिन घर के सभी पुरुष सदस्य एक साथ आकर पुराने जनेऊ को बदलते हैं। यह धार्मिक अनुष्ठान परिवार के सदस्यों को एक साथ लाता है और उन्हें अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जड़ों से जोड़े रखता है।
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