
धर्म डेस्क: धर्म परंपराओं में गीता जयंती का विशेष स्थान माना गया है, जो हर वर्ष मोक्षदा एकादशी के शुभ अवसर पर मनाई जाती है। यह दिन न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि अध्यात्म, आत्मज्ञान और जीवन के सिद्धांतों को समझने का सर्वोत्तम अवसर भी प्रदान करता है। श्रीमद्भागवत गीता का पाठ इस दिन अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। कहा जाता है कि यदि गीता के ज्ञान को श्रद्धा, अनुशासन और पवित्र भाव से ग्रहण किया जाए, तो जीवन में सकारात्मक परिवर्तन अवश्य आते हैं।

गीता पाठ शुरू करने से पहले अपने शरीर और वातावरण की पवित्रता सुनिश्चित करना सबसे आवश्यक है। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करें और साफ-सुथरे तथा शुद्ध वस्त्र पहनें। इसके बाद एक शांत एवं स्वच्छ स्थान का चुनाव करें। जमीन पर आसन बिछाकर बैठें और मन को स्थिर करते हुए भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें। यही अवस्था पाठ के लिए श्रेष्ठ मानी गई है, क्योंकि इससे मानसिक एकाग्रता बढ़ती है और अध्यात्म का अनुभव गहरा होता है।
गीता पाठ के दौरान शांति और पवित्रता की विशेष आवश्यकता होती है। जिस स्थान पर आप बैठें, वह स्थान शांत, स्वच्छ और व्यवधान-रहित होना चाहिए। पाठ के समय किसी प्रकार की बातचीत, मोबाइल फोन का उपयोग या अन्य विचलन से बचना चाहिए। आपने जो अध्याय आरंभ किया है, उसे बीच में रोके बिना पूरा करना गीता पाठ की शास्त्रीय मर्यादा है। इससे मन निरंतर एक विषय में स्थिर रहता है और अध्ययन का प्रभाव अधिक गहन होता है।
धार्मिक नियमों के अनुसार गीता को सीधे जमीन पर रखना अशुभ माना जाता है। इसे सदैव लकड़ी की चौकी, आसन या पवित्र स्थान पर ही स्थापित करें। गंदे या बिना धुले हाथों से गीता ग्रंथ को स्पर्श न करें। पाठ करते समय नकारात्मक विचार, क्रोध, आलस्य या अशुद्ध भाव मन में न आने दें। ये सभी बातें अध्यात्मिक ऊर्जा को बाधित करती हैं और पाठ से मिलने वाले फल को कम कर देती हैं।
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गीता पाठ का वास्तविक लाभ तभी मिलता है जब इसके उपदेशों को केवल पढ़ा ही नहीं, बल्कि समझा और जीवन में अपनाया जाए। श्रीमद्भागवत गीता कर्म को सर्वोच्च स्थान देती है। इसलिए गीता के संदेश केवल ज्ञान बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए हैं। श्रद्धा, एकाग्रता और अनुशासन के साथ किया गया पाठ व्यक्ति के विचारों, आचरण और जीवन दिशा में अद्भुत परिवर्तन लाने में सक्षम होता है।
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