धर्म डेस्क, इंदौर। हिंदू धर्म ग्रंथों में देवी हरसिद्धि की आराधना के महत्व के बारे में विस्तार से उल्लेख मिलता है। देश में वैसे तो देवी हरसिद्धि के कई मंदिर हैं, लेकिन वाराणसी और उज्जैन में स्थित हरसिद्धि मंदिर का विशेष पौराणिक महत्व है। पंडित चंद्रशेखर मलतारे इस लेख में उज्जैन के हरसिद्धि के धार्मिक महत्व के बारे में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं।
पंडित चंद्रशेखर मलतारे के मुताबिक, उज्जैन स्थित महाकाल क्षेत्र में जो हरसिद्धि मंदिर है, वह काफी प्राचीन है और उज्जैन के हरसिद्धि मंदिर को ही सम्राट विक्रमादित्य की तपोभूमि माना जाता है। धार्मिक मान्यता है कि देवी हरसिद्धि को प्रसन्न करने के लिए सम्राट विक्रमादित्य ने इस स्थान पर 12 वर्ष तक कठिन तप किया था और हर वर्ष अपने हाथों में अपने मस्तक की बलि दी थी। बलि देने के बाद हर बार उनका मस्तक वापस आ जाता था। 12वीं बार जब मस्तक वापस नहीं आया तो समझा गया कि उनका शासन अब पूर्ण हो चुका है।
एक धार्मिक मान्यता यह भी है कि उज्जैन की रक्षा के लिए आसपास कई देवियां है, उनमें से एक देवी हरसिद्धि भी है। धार्मिक मान्यता है कि इस स्थान पर सती के शरीर से अलग होने के बाद हाथ की कोहनी गिरी थी और इस कारण इस स्थान को शक्तिपीठ के अंतर्गत माना जाता है। पौराणिक ग्रंथों में भी उज्जैन के हरसिद्धि मंदिर का उल्लेख मिलता है। उज्जैन में दो शक्तिपीठ माने जाते हैं। पहला हरसिद्धि माता और दूसरा गढ़कालिका माता का शक्तिपीठ।
उज्जैन स्थित देवी हरसिद्धि मंदिर में 4 प्रवेशद्वार हैं। इस मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की तरफ है। मंदिर के दक्षिण-पूर्व के कोण में एक बावड़ी बनी हुई है, जिसके अंदर एक स्तंभ है। यहां श्री यंत्र बना हुआ स्थान है। हर साल नवरात्रि के दौरान 5 दिन स्तंभ में दीप जलाएं जाते हैं। शक्तिपीठ होने के कारण इस मंदिर का विशेष महत्व है।
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