
स्पोर्ट्स डेस्क। टेस्ट क्रिकेट अपनी जीवंतता बनाए रखने के लिए बदलाव के दौर से गुजर रहा है। आईसीसी ने डे-नाइट टेस्ट और विश्व टेस्ट चैंपियनशिप (WTC) जैसे प्रयोग किए, लेकिन खेल की असली आत्मा मैदान पर खेली जाने वाली शैली में बसती है। हाल के वर्षों में इंग्लैंड के कोच ब्रेंडन मैक्कलम और भारतीय कोच गौतम गंभीर की रणनीतियों ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है क्या आधुनिक कोचों की 'अति-आक्रामक' सोच टेस्ट क्रिकेट के पारंपरिक धैर्य और कौशल को खत्म कर रही है?
साल 2022 में जब ब्रेंडन मैक्कलम इंग्लैंड के कोच बने, तो 'बैजबॉल' शब्द क्रिकेट की दुनिया में गूंजने लगा। मैक्कलम ने अपनी व्यक्तिगत आक्रामकता को पूरी टीम के स्वभाव में बदलने की कोशिश की। नतीजा यह हुआ कि जो रूट जैसे क्लासिक बल्लेबाज भी अपनी शैली बदलकर आक्रामक शॉट खेलने के चक्कर में विकेट गंवाने लगे। हालांकि रूट अपनी मूल शैली में लौट आए और अब सचिन तेंदुलकर के रिकॉर्ड के करीब हैं, लेकिन इंग्लैंड की टीम इस अति-आक्रामकता के कारण कई जीते हुए मैच हार गई। डब्ल्यूटीसी (WTC) की रेस में इंग्लैंड का पिछड़ना इसकी गवाही देता है।
2024 में गौतम गंभीर (गैगबॉल) के कोच बनते ही भारतीय टेस्ट टीम की पहचान बदलने लगी। भारत, जिसे अपने घर में 'अजेय' माना जाता था, उसे पहले न्यूजीलैंड और फिर दक्षिण अफ्रीका ने करारी शिकस्त दी। गंभीर की रणनीति में सबसे बड़ी कमी स्पेशलिस्ट खिलाड़ियों की अनदेखी रही है।
गंभीर ने शुद्ध बल्लेबाजों और गेंदबाजों के बजाय 'ऑलराउंडरों' की फौज तैयार करने पर जोर दिया।
टेस्ट क्रिकेट पांच दिनों का खेल है, जो 'सेशन दर सेशन' धैर्य की मांग करता है। वीरेंद्र सहवाग या ट्रेविस हेड जैसे खिलाड़ी अपवाद हो सकते हैं, लेकिन पूरी टीम को टी20 के अंदाज में खिलाना जोखिम भरा साबित हो रहा है। वेस्टइंडीज क्रिकेट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसकी टी20 शैली ने वहां टेस्ट विशेषज्ञ खिलाड़ियों का अकाल पैदा कर दिया।
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मौजूदा समय में ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका ने यह साबित किया है कि टेस्ट क्रिकेट आज भी विशेषज्ञों का खेल है।
टेस्ट क्रिकेट को बचाने के लिए आक्रामकता जरूरी है, लेकिन वह 'अति' नहीं होनी चाहिए। अगर कोच और टीमें स्पेशलिस्ट खिलाड़ियों के बजाय टी20 मानसिकता वाले खिलाड़ियों पर निर्भर रहीं, तो टेस्ट क्रिकेट का वह सुनहरा ढांचा ढह सकता है जिसे बनाने में दशकों लगे हैं।