
डिजिटल डेस्क: बिहार के चुनावी मैदान (Bihar Elections 2025) में इस बार ‘बागी’ उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या ने सियासी धुंध और बढ़ा दी है। टिकट कटने के बाद हारे या किनारे किए गए कई अनुभवी नेता अब निर्दलीय होकर अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, जिससे पारम्परिक दलीय उम्मीदवारों के सामने मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। गोपाल मंडल, जय कुमार सिंह, रितु जायसवाल और मोहम्मद इरफान आलम जैसे नाम इस बागी लहर के सबसे चर्चित चेहरों में शामिल हैं।
भागलपुर जिले की गोपालपुर सीट पर जदयू के चार बार विधायक रहे गोपाल मंडल को इस बार पार्टी ने टिकट नहीं दिया और शैलेश कुमार उर्फ बुलो मंडल को प्रत्याशी बनाया गया। नाराज गोपाल मंडल ने बगावत का रास्ता अपनाते हुए निर्दलीय नामांकन करा लिया है। उनके बागी कदम ने जदयू के अधिकृत प्रत्याशी के सामने चुनौती पैदा कर दी है और इलाके में राजनीतिक तापमान बढ़ गया है।
रोहतास की दिनारा सीट पर भी ऐतिहासिक विवाद देखने को मिल रहा है। सीट एनडीए-सम्बन्धी सीट-शेयरिंग के कारण राष्ट्रीय लोक मोर्चा (रालोमो) के खाते में गई, जबकि जदयू के वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री जय कुमार सिंह को इंतजार रह गया। टिकट न मिलने से आहत जय कुमार सिंह ने निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ने का फैसला किया और दिनारा की लड़ाई और भी संगीन हो गई है।
सीतामढ़ी की परिहार सीट पर रितु जायसवाल, जो ग्राम पंचायत से उठ कर लोकप्रिय चेहरा बन चुकी हैं, राजद में टिकट न मिलने पर बागी हो गईं और परिहार से स्वतंत्र रूप से मैदान में हैं। उन्होंने दावा किया कि पार्टी ने परिवारवादी राजनीति को तरजीह दी जबकि वे सीधे जनता के बीच जाकर अपनी जीत की लड़ाई लड़ना चाहती हैं। उनकी भावनात्मक अपील ने स्थानीय स्तर पर समर्थन जुटाया है।
ऐसी ही कई और घटनाएं भी रिपोर्ट की जा रही हैं कुछ दागी या अनुभवी नेताओं के टिकट कटने के बाद उन्होंने अपना दर्जा जनता के पास परखा। कांग्रेस के कुछ पुराने विधायक और राजद के समीपस्थ स्थानीय नेता भी बागी तेवर अपना रहे हैं। मीडिया कवरेज में यह भी बताया गया है कि राज्य भर में दर्जन भर से अधिक निर्दलीय उम्मीदवार ऐसे हैं जिनका असर दलीय वोटों पर पड़ सकता है।
विश्लेषकों का कहना है कि बागी उम्मीदवार खासकर उन सीटों पर निर्णायक साबित हो सकते हैं जहां चुनाव पहले से कड़ा है। निर्दलीय होने पर ये नेता अक्सर अपने व्यक्तिगत वोट बैंक के बूते मुकाबला कर देते हैं, जिससे दलीय उम्मीदवारों के वोट बंटते हैं और परिणाम अप्रत्याशित बनते हैं। राजनीतिक दलों के लिए यह चुनौती है कि वे अपने रणनीतिक समीकरण और कार्यकर्ताओं की नाखुशी को कैसे नियंत्रित करें ताकि गठबंधन या पार्टी की समग्र स्थिति पर बुरा असर न पड़े।
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पार्टी नेतृत्व की ओर से बागियों को मनाने और स्थानीय समस्याओं का हल करने के प्रयास जारी हैं, पर फिलहाल चुनावी रणभूमि में ये बागी चेहरे वोट की दिशा बदलने की क्षमता रखते हैं और कई सीटें रोमांचक और अनिश्चित बनी हुई हैं।