ब्रजेश शुक्ला, जबलपुर। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि मध्यकाल में जबलपुर तंत्र साधना का देश का उत्कृष्ट विश्वविद्यालय था। यहां तंत्र शास्त्र के आधार पर तंत्र विद्या भी सिखाई जाती थी। जिसे लोग गोलकी मठ के नाम से जानते थे, लेकिन मुगलों के आक्रमण के बाद यह मठ धीरे-धीरे बंद हो गया। आज भी जब तंत्र साधना की बात होती है तो गोलकी मठ को विशेष तौर पर याद किया जाता है। जो वर्तमान में भेड़ाघाट के चौसठ योगिनी मंदिर के नाम से जाना जाता है।
यह एक ऐसा केंद्र बिंदु है जहां सारे मत देखने मिलते हैं। लेकिन शैव मत सबसे पुराना है क्योंकि त्रिपुरेश्वर महादेव की स्थापना के साथ ही यहां शैव मत की परंपरा शुरू हो गई थी। हालांकि शैव मत दक्षिण भारत में ज्यादा प्रचलित था। लेकिन यहां अन्य मतों का भी समावेश रहा।
नोहला देवी के समय हुआ निर्माण :
चालुक्य राजकुमारी नोहला देवी जब यहां आई तो युवराज देव प्रथम और नोहला देवी का समीकरण इतना अच्छा बैठा कि यहां पर उन्होंने गोलकी मठ की स्थापना की। यह एक विश्वविद्यालय था, जिसकी शाखाएं दक्षिण भारत में मद्रास के कुर्नूल, गुंटूर, कड़प्पा तक थीं। नोहलेश्वर, बिलहरी, बघेलखंड से लेकर केरल में भी इनका अध्ययन केंद्र था। शहर के त्रिुपरी, बटुक भैरो भी अध्ययन केंद्र थे। दरअसल गोलकी मठ विश्वविद्यालय था जिसमें 81 योगनियों की स्थापना की गई थी। दरअसल राजा युद्ध, सुख-समृद्धि सहित अन्य कामनाओं के लिए 81 योगनियों की स्थापना कराते थे। आम तौर पर पूजन करने वाले चौसठ योगनियों की स्थापना कराते थे। औरंगजेब के हमले के बाद वर्तमान में गोलकी मठ में चौसठ योगिनी बची हैं वह भी अंग-भंग हैं।
इनका होता था अध्ययन :
गोलकी मठ में कौल मार्ग, योगिनियों का अध्ययन के साथ ही तंत्र साधना का अध्ययन होता था। जिसमें भूत लिपि की शिक्षा दी जाती थी। शारदा तिलक यंत्र में भूत लिपि का वर्णन मिलता है। यहां शैव यानी शिव से संबंधित सभी शिक्षा दी जाती थी, जिसमें शिक्षालय, आरोग्य शाला, भोजनशाला, नृत्यकलाविद भी थे। यह निरपेक्ष केंद्र था जहां कोई विवाद नहीं था। जिसे सभी स्वीकार करते थे। यहां कलचुरियों ने शैव और वैष्णव के साथ ही बौद्ध और जैन मत की मूर्तियों का भी निर्माण कराया।
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तीन लाख गांव की आय से होता था संचालन :
जब गोलकी मठ विश्वविद्यालय की स्थापना की गई तो इसके संचालन के लिए तीन लाख गांव दिए गए। मठों के अधिकारी पाशुपत संप्रदाय के शैव रहते थे। यह संप्रदाय दक्षिण के द्राविड़ ब्राह्मणों में बहुत प्रचलित था। वहां भी अनेक मठ स्थापित किए गए थे जो गोलकी मठ से संबंध रखते थे। गोलकी मठ के प्रथम महंत सद्भाव शंभू हुए थे। वे कालामुख शाखा को पालते थे। इनमें छह मुक्तिमार्ग मानते हैं। जिनमें खोपड़े में भोजन करना, शव की राख से शरीर लेपन करना, राख खाना, दंड भरना, मदिरा का प्याला पास रखना और योनि स्थित देव का पूजन करना शामिल था। कलचुरियों ने इन्हीं आचार्य को तीन लाख गांव अर्पण किए थे। जिसकी आय का उपयोग विश्वविद्यालय में किया जाता था।
धर्म निरपेक्ष थे कलचुरी शासक :
इतिहासकार डा. आनंद सिंह राणा बताते हैं कि दुर्वासा ऋषि ने यहां साधना की शुस्र्आत की थी। जब नोहला देवी यहां विवाह के बाद आईं तो युवराज देव के साथ शैव मत के लिए विशेष तौर पर गोलकी मठ का निर्माण कराया। इनके शासनकाल में शैव के साथ ही वैष्णव, बौद्ध और जैन परंपरा की मूर्तियों का भी निर्माण कराया। देखा जाए तो कलचुरी शासक धर्मनिरपेक्ष थे जो सभी मतों का सम्मान करते थे। राजकुमारी नोहला दक्षिण भारत से आईं थी। जो शैव मत के लिए विशेष स्थान रखता है। यहां आने के बाद उन्होंने कई शिव मंदिरों का भी निर्माण कराया। उन्होंने अपने शासनकाल में देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय का निर्माण कराया जो तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध था। इसके अध्ययन केंद्र देशभर में थे। जब देश में मुगल आक्रांता औरंगजेब ने गोलकी मठ में हमला किया तो चौसठ योगनी की प्रतिमाओं को भी खंडित कर दिया। जिसके बाद यह केंद्र बंद हो गया।
कलचुरी राजाओं ने कराया था गोलकी मठ का निर्माण :
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक के एसोसिएट प्रोफेसर डा. मोहन लाल चड़ार बताते हैं कि गोलकी मठ तंत्र विद्या का सबसे बड़ा केंद्र था। 9वीं-10वीं शताब्दी में कलचुरी राजाओं ने गोलकी मठ की स्थापना की थी। पाशुपत संप्रदाय के साधक यहां रहते थे जो हठ योगी थे। वे उच्च स्तर की योग साधना करते थे और शिष्यों को भी सिखाते थे। इसी संप्रदाय में तंत्र साधना भी होती है। सप्त मातृकाओं की सहयोगी देवियों में चौसठ योगिनी है। यहां चौसठ योगिनी की जो मूर्तियां है उनमें नर्मदा, यमुना, गंगा भी शामिल हैं। इसमें भैसासुर मर्दिनी को भी शामिल किया गया है। इनके योग से सीधे संबंध हैं। तंत्र योग की विज्ञानी पद्धति है। जिसकी लोग साधना करते थे और बच्चों को सिखाते थे। खास बात यह है कि यहां बीच में विराजे चतुर्मुख शिवलिंग में सभी योगिनियों की नजर शिवलिंग पर पड़ती है। त्रिपुरी अभिलेख, गयाकरण के अभिलेख के साथ ही गांगेव देव के गुर्गी अभिलेख में भी इसका उल्लेख मिलता है।