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डिजिटल डेस्क। जरा सोचिए... अगर आपके घर में हर वक्त धुएं की मोटी परत जमी रहे, तो क्या आप चैन से सांस ले पाएंगे? दिल्ली समेत देश के कई शहरों के साथ भी यही हो रहा है। भारत की राजधानी आज दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों (Pollution in Delhi) में से एक है। इसी तरह का हाल गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, हापुड़, इंदौर, जबलपुर का भी है। खासकर सर्दियों में, यहां की हवा इतनी जहरीली हो जाती है कि यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की सुरक्षित सीमा से पंद्रह गुना तक ज्यादा खतरनाक (AQI) होती है।
बात दिल्ली की करें तो हां, यह अच्छी बात है कि 2020 के बाद से प्रदूषण थोड़ा कम हुआ है (करीब 15.7 प्रतिशत AQI में गिरावट), लेकिन अक्टूबर से फरवरी के बीच - जब पराली का धुआं, गाड़ियों का जहर, और उद्योगों की गंदगी मिलती है - तब यहां की हवा 'गंभीर' स्तर पर पहुंच जाती है, और हमारी सांसों पर ताला लग जाता है।
लेकिन क्या यह ऐसी परेशानी है जिसका इलाज पूरी तरह नहीं हो सकता है। अगर कभी भी ऐसी सोच मन में आए तो परेशान होने की बजाय, हमें लंदन और बीजिंग जैसे शहरों से सीखना चाहिए। इन शहरों ने भी कभी ऐसा ही दम घोंटने वाला प्रदूषण झेला था, लेकिन पक्के इरादे और नई सोच से इन्होंने अपने आसमान को साफ कर लिया।

आइए सबसे पहले समझते है कि आखिर भारत के शहरों की वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) खराब कैसे हुई या हो रही है। AQI के खराब होने के कई प्रमुख कारण हैं, जो शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। इन कारणों को मुख्य रूप से मानव गतिविधियों और मौसमी बदलावों से जोड़ा जा सकता है...
1. प्रमुख उत्सर्जन स्रोत (Major Emission Sources)
2. मौसमी और क्षेत्रीय कारक (Seasonal and Regional Factors)
अब समझने की कोशिश करते है कि आखिर लंदन और बीजिंग जैसे शहर जिनका हाल कभी दिल्ली से भी बदतर था उन्होंने कैसे जीत हासिल की...
लंदन की समझदारी: "प्रदूषण करो तो पैसा भरो"
लंदन में 1952 के भयानक स्मॉग के बाद ही 'क्लीन एयर एक्ट' बना था। लेकिन आज के लंदन का सबसे बड़ा हथियार है अल्ट्रा लो एमिशन जोन (ULEZ).
क्या है ये? यह एक आर्थिक नियम है। अगर आपकी गाड़ी बहुत पुरानी है और ज्यादा धुआं छोड़ती है, तो आपको लंदन के मुख्य इलाके में घुसने के लिए हर दिन पैसा (शुल्क) देना पड़ता है।
मकसद: पुरानी, गंदी गाड़ियों के मालिकों को मजबूर करना कि वे या तो नई, साफ गाड़ी खरीदें, या फिर बस/मेट्रो का इस्तेमाल करें।
भारत के लिए सबक: हमारे एक्सपर्ट सुनील दहिया कहते हैं कि दिल्ली में तुरंत बैरिकेड लगाकर ऐसा करना मुश्किल है। लेकिन हम GPS-आधारित FASTag जैसी तकनीक का इस्तेमाल करके ऐसे 'नो-पॉल्यूशन जोन' बना सकते हैं।
चीन की राजधानी बीजिंग में 2007 से एयर पॉल्यूशन शुरू हुआ तो 2011 तक पहुंचते-पहुंचते हालात दिल्ली से भी बदतर हो गए थे। शहर घने ग्रे स्मॉग से ढका रहता। बीजिंग की सफलता एक मिसाल है, खासकर 2008 के ओलंपिक से पहले। उनकी सबसे बड़ी समझदारी यह थी कि उन्होंने माना, "दिल्ली का प्रदूषण सिर्फ दिल्ली के अंदर नहीं है।"

बड़ा सोचो: बीजिंग ने देखा कि हवा किस दिशा से आती है, और उन्होंने सिर्फ शहर में नहीं, बल्कि 300 से 400 किलोमीटर दूर के उद्योगों पर कार्रवाई की।
जहां दर्द, वहां इलाज: उन्होंने सबसे पहले स्टील प्लांट और बिजली बनाने वाले उद्योगों पर शिकंजा कसा। उन्हें बेहतर मशीनें लगाने को मजबूर किया, और जरूरत पड़ने पर अस्थायी रूप से बंद भी कर दिया।
भारत के लिए सबक: मनोज कुमार (CREA) के अनुसार, दिल्ली का 50 प्रतिशत प्रदूषण पड़ोसी NCR जिलों से आता है। इसलिए हमें दिल्ली और उसके आस-पास के राज्यों को मिलकर 'एयरशेड-आधारित' योजना पर काम करना होगा।

दिल्ली का मौजूदा तरीका (GRAP) सिर्फ तब शुरू होता है जब प्रदूषण बहुत 'गंभीर' हो जाता है - यानी आग लगने के बाद कुआं खोदना। हमें इससे निकलकर सक्रिय (Proactive) बनना होगा।
सुनील दहिया कहते हैं, हमें छोटे-मोटे उपाय छोड़कर 'पूर्ण उत्सर्जन भार कटौती' का लक्ष्य रखना होगा। इसका मतलब है कि हर सेक्टर उद्योग, बिजली घर, और वाहन के लिए एक निश्चित समय सीमा और पक्की जवाबदेही तय करनी होगी।
लाखों गाड़ियों को एक साथ बदलना बहुत मुश्किल है। मनोज कुमार का मानना है कि हमें पहले उन बड़े स्रोतों पर ध्यान देना चाहिए जिन पर नियंत्रण आसान है:
बिजली घर: देश में बिजली बनाने वाले प्लांट सिर्फ 12 हैं, इन्हें नियंत्रित करना लाखों गाड़ियों के मुकाबले बहुत आसान है।
सख्ती दिखाओ: हमें थर्मल पावर प्लांट को FGD (फ्लू-गैस डिसल्फराइजेशन) जैसी प्रदूषण कम करने वाली मशीनें लगाने से छूट नहीं देनी चाहिए, जैसा कि हाल ही में हुआ था। बीजिंग ने भी पहले उद्योगों को ठीक किया, फिर गाड़ियों को।

हमारे पास पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की 'निर्णय समर्थन प्रणाली' है, जो प्रदूषण का पूर्वानुमान लगा सकती है।
प्रोएक्टिव बनो: पूर्वानुमान डेटा का इस्तेमाल सिर्फ यह बताने के लिए नहीं होना चाहिए कि हवा खराब क्यों हुई, बल्कि इस डेटा का उपयोग हवा खराब होने से पहले ही उन प्रदूषणकारी स्रोतों को बंद करने या उन्हें बेहतर तकनीक अपनाने के लिए निर्देशित करने के लिए होना चाहिए।
आगे का रास्ता : एक्सपर्ट मानते हैं कि 2030 तक WHO के मानक तक पहुंचना शायद 'बहुत मुश्किल' है, लेकिन लगातार और पक्की कोशिशों से हम 'सांस लेने लायक' हवा पा सकते हैं। अब छोटे कदम उठाने का नहीं, बल्कि पक्के इरादे से बड़े कदम उठाने का समय है। इन सभी प्रयासों में लोगों की भागीदारी (People's Participation) बहुत जरूरी है।
इनपुट-
1. जागरण
2. द डेली जागरण
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