डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा से आई निक्की नाम की विवाहिता की दर्दनाक मौत ने पूरे देश को झकझोर दिया है। सीसीटीवी फुटेज में निक्की आग से जलती हुई सीढ़ियों से भागती नजर आती है, अपनी जान बचाने की आखिरी कोशिश करते हुए। इस घटना ने एक बार फिर सवाल खड़ा किया है कि क्या हमारे कानून और समाज सचमुच महिलाओं की सुरक्षा देने में सक्षम हैं?
भारत में दहेज की कुप्रथा ने दशकों से बेटियों की जिंदगी लील ली है। NCRB (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) की 2022 की रिपोर्ट बताती है कि सिर्फ एक साल में 6,450 दहेज हत्याएं हुईं। इनमें सबसे ज्यादा मामले बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, ओडिशा और हरियाणा से सामने आए, जो कुल 80 प्रतिशत मामलों का हिस्सा हैं। यानी हर दिन औसतन 54 महिलाएं दहेज की बलि चढ़ रही हैं।
दहेज के खिलाफ कानून
दहेज रोकने के लिए 1961 में दहेज निषेध अधिनियम बनाया गया। बाद में IPC की धारा 304B, 498A और 2005 का घरेलू हिंसा अधिनियम जोड़ा गया। इन कानूनों के अनुसार शादी के 7 साल के भीतर दहेज से जुड़ी संदिग्ध मौत को दहेज हत्या माना जाता है।
समस्या कहां है?
कानून सख्त हैं, लेकिन धीमी जांच, लंबी सुनवाई, गवाहों की कमी और सामाजिक दबाव जैसी चुनौतियां अब भी न्याय की राह में बाधा हैं। नतीजा यह है कि आज भी गांव से लेकर शहर तक दहेज के नाम पर बेटियों की जिंदगी कुर्बान हो रही है।